Ayurveda Beginners को आयुर्वेदिक विषय समझानें के लिए यह post लिखा गया है । सृष्टि के प्रारंभ से ही आयुर्वेद विद्यमान था जिन्हें ब्रह्म संहिता इस नाम से जाना जाता है । संस्कृत सूत्रात्मक भाषा से तैयार हुआ है। 100000 श्लोक और 1000 अध्याय से परिपूर्ण इस अमृत स्वरूप आयुर्वेदिक ग्रंथ से ही देश काल और परिस्थितियां और वदलते समय को ध्यान में रखकर दूसरी आयुर्वेदिक ग्रंथों का निर्माण किया गया है। इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि आज का चिकित्सा विज्ञान का जनक ही ब्रह्मसंहिता परक आयुर्वेद है।
Ayurvedic Practitioner डॉक्टरों का ऐसा मानना है कि आयुर्वेद इंसान के शरीर का सहज भाषा है। इंसान का शरीर सुबह से रात तक किस प्रकार कार्य करता है यह सभी बातें चरक संहिता, अष्टांग हृदयम् जैसे Ayurveda books में लिखे गए हैं।
यदि आप bams किए बगैर Ayurveda सीखना चाहते हैं वह भी अपने घर में बैठे तो यह संभव है। Ayushyogi में Online Ayurveda Class में Registration कर आप चरक संहिता,द्रव्य गुण विज्ञान, आयुर्वेदिक नाड़ी परीक्षण, Medical Astrology जैसे अनेक आयुर्वेद से जुड़े हुए विषयों को BAMS Level का प्रशिक्षण प्राप्त कर सकते हैं।
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नमस्कार दोस्तों अब हम आयुर्वेद के विषय में Ayurveda के basic level से कुछ-कुछ बातें समझने का प्रयास करेंगे जिसको Ayurveda के beginner student को समझना बेहद जरूरी है।
शरीर कफ पित्त और वात यह तीनों शक्तियों से चलती है। वास्तव में यह तीनों शक्तियां दोष नहीं यह हमारे मित्र है। दोष तो उसे कहा जाता है जो बुरा होता है। लेकिन कफ पित्त और वात तो हमारे शरीर में पृथ्वी जल तेज वायु और आकाश तथा शरीर के सभी कोशिकाओं का निर्माणक है। आयुर्वेद ने वायु तत्व को तो साक्षात देवता स्वरूप माना है आयुर्वेद का मानना है की वायु तत्व उस शक्ति का नाम है जिससे समूचा ब्रह्मांड के अंदर और बाहर के सभी छोटी और बड़ी क्रियाएं निर्धारित होती है।
स हि भगवान् प्रभवश्चाव्ययश्च, भूतानां भावाभावकरः, सुखासुखयोर्विधाता, मृत्युः, यमः, नियन्ता, प्रजापतिः, अदितिः, विश्वकर्मा, विश्वरूपः, सर्वगः, सर्वतन्त्राणां विधाता, भावानामणुः, विभुः, विष्णुः, क्रान्ता लोकाना, वायुरेव भगवानिति ।।
इस प्रकार वायु के अनंत शक्तियों का वर्णन चरक संहिता में लिखी हुई है। 'लोकानां वायुरेव भगवानिति' इस शब्द का अर्थ होता है सभी लोगों के लिए वायु ही भगवान है।
सर्व विदित है की चरक संहिता ही आयुर्वेद का प्रमुख चिकित्सा शास्त्र है। चरक संहिता व्यक्ति को अत्यंत सरल भाषा में आयुर्वेदिक चिकित्सा का चिकित्सा विधि सूत्रात्मक तरीका से समझाता है इसीलिए
हम प्रतिदिन चरक संहिता के प्रत्येक अध्याय के ऊपर Non BMS student को ख्याल में रखकर बारीकी से चर्चा करेंगे
यहां से हम आयुर्वेद विषयक सामान्य जानकारी को सीखेंगे
संपूर्ण चरक संहिता पढ़ने के बाद विद्यार्थियों में आयुर्वेद के प्रति विशिष्ट जानकारी मिलना शुरू हो जाता है उसके बाद हम मंत्र चिकित्सा विधि सीखने के बाद फिर रसायन निर्माण के बारे में प्रैक्टिकली गुरु के सम्मुख बैठकर निर्माण विधि को सीखेंगे जिसमें आप सीख पाएंगे
Ayushyogi में पढ़ने वाले आयुर्वेद विषयक विद्यार्थियों को किसी अच्छे और प्रामाणिक आयुर्वेदिक संस्थान में एडमिशन दिलाकर exam में बेठाया जाता है वहां से certificate प्राप्त कराकर आप को आयुर्वैदिक वैद्य बनाने का संकल्प के साथ आयुष योगी आगे बढ़ रहा है।
The medical approach and philosophies of ancient Ayurveda and modern allopathic science differ in many aspects.
√ Ayurveda says to remove toxins through discomfort, keep eating light until toxins remain inside.
√ Allopathy says that the patient should not suffer in any case, whatever will happen later, will be taken care of at that time, but today calm the physical symptoms.
√ Ayurveda determines doshas based on symptoms and treats diseases through examination and treatment using useful Ayurvedic methods. For example, if someone is having an epilepsy attack, first, an examination is done to determine the root cause - such as a person who used to have a fever in childhood and later started having epilepsy attacks, an Ayurvedic doctor gave treatment for chronic fever, and the patient recovered.
√ Allopathic medicine relies on supportive therapy through necessary enzymes for replenishing the body's components. For instance, if there is a deficiency of Vitamin B, a Vitamin B supplement is given. Often, it is not considered why this deficiency is occurring, and even if considered, ultimately only Vitamin B is given. If a person had a fever in childhood and later started having epileptic seizures, allopathic doctors would prescribe medication for seizures.
Ayurveda considers the cause of the disease to be a human's wrong daily routine, diet, lifestyle, seasonal regimen, and the accumulation of past actions (karma).
Allopathy emphasizes the importance of chemical imbalance in the body as the cause of the disease. It explains that one who is healthy should always remain healthy and one who is unhealthy, by understanding the root cause of their illness, should be advised on how to maintain a proper daily routine, seasonal regimen, good behavior, and diet.
In reality, the knowledge provided about the science of the body regulated by the three great forces—kapha, pitta, and Vata—and discussing topics like its deterioration, causes of deterioration, and what to do when it deteriorates, should be referred to as Ayurveda. Wherever there is an analysis of these subjects, it should be called Ayurveda. Or - the combination of body, senses, mind, and soul is called life: according to Ayurveda, the harmonious relationship between these four is a symbol of life. This is the producer of life. Therefore, spirituality considers these four as the divine form of the Supreme Being. As long as these four are in perfect harmony, Ayurveda considers it as life or the subject matter related to this life.
आयुर्वेद चिकित्सा के लिए एक निश्चित मापदंड के ऊपर कार्य करता है। आयुर्वेद के मुताबिक इंसान के दूषित आहार बिहार ही उसका रोगों का कारण है। यह आहार बिहार इंसान के शरीर मन इंद्रिय या आत्मा को प्रभावित करता है। इसको ठीक करने के लिए इन बिंदु के ऊपर ध्यान देना होगा।
- यह देखो की रोगी के रोग का प्रमुख हेतु क्या है?
उदाहरण:- यदि व्यक्ति रात भर जागता रहता है तो रात्रि जागरण उसके रोग का हेतु हो सकता है। रात्रि जागरण से शरीर में रुक्ष और चल यह वायु का गुण बढ़ जाता है साथ में इसके विपरीत कफ के मंद और स्थिर गुण कम हो जाते हैं। अब देखना यह है कि वह व्यक्ति रात्रि जागरण के अलावा और कौन-कौन से वह कर्म करता है जिससे शरीर में रुक्ष और चल गुण बढ़ जाता हो जैसे:-dry food, dry product का सेवन, अत्यंत यात्रा, अती व्यायाम,चिंता,शोक, यह सभी चल और रुक्ष गुणों को बढ़ाने वाली व्यवहार है।
रोगी से प्रश्न करते हुए नोट करते जाना चाहिए फाइनली अंदाज लगाइए की कितना प्रतिशत वायु इन गुणों से बढ़ा हुआ है।
ऊपर के उदाहरण से जिस प्रकार शरीर में वायु अपने विशेष रुक्ष और चल इन गुणों से बढ़ा हुआ है। अब उस व्यक्ति को शारीरिक रूप से कोई भी रोग क्यों ना हुआ हो तात्विक दृष्टि से तो उस व्यक्ति के शरीर में किसी भी रोग का मूल कारण तो वायु का रुक्ष और चल गुण ही रहेगा। हमारा चिकित्सा इसी गुण के विपरीत होना चाहिए।
रुक्ष के विपरीत स्निग्ध और चल के विपरीत स्थिर,मंद यह गुण जिन-जिन द्रव्यों में रहेगा उसके माध्यम से चिकित्सा करनी चाहिए व्यवहार भी वैसा ही करना चाहिए क्योंकि वायु का वह गुण उसके विपरीत गुणों से ही शांत हो सकेंगे।
Note:- कभी-कभी विपरीत दोषों के कारण से भी दोष बिगड़ जाते हैं
जैसे:- रात्रि जागरण से वायु बढ़ा - बढ़ा हुआ वायु अग्नि स्थान में आकर जठर अग्नि को मंद कर देता है - मंदाग्नी होने से आम की वृद्धि होगी - बढ़ा हुआ आम कफ स्थान में आकर कफज आम में परिवर्तन होकर बलगमी खांसी हो गया तो यहां विचार कफ दोष का नहीं बल्कि वात दोष का ही करना चाहिए।
सौ बात की एक बात यह है कि रोगी के ऊपर रोग का मूल कारण का अन्वेषण अनेक विधि से करना चाहिए।
चिकित्सा रोग के कारण से उत्पन्न दोषों के गुणों के विपरीत ही होना चाहिए बेशक प्रत्यक्ष रूप में कुछ भी दोष विकृत अवस्था में क्यों ना दिखाई दे आयुर्वेदिक
इन्हें दोष क्यों कहा जाता है इसको समझने के लिए हमें दोष: इस शब्द का परिभाषा जानना चाहिए वास्तव में:- दूषयन्तीती दोषा: जो दूषित हो सकता है उन्हें दोष कहते हैं।
कफ पित्त और बात का संबंध प्रकृति के साथ रहता है जैसे प्रकृति में स्थित आकाश और वायु तत्व का इंसान के शरीर में प्रतिनिधित्व करने वाला है वायु, इसी प्रकार बाहरी जगत में जो अग्नि और जल तत्व है उसे हमारे शरीर में पित्त शक्ति प्रतिनिधित्व करता है। प्रकृति में जो जल और पृथ्वी महाभूत है उसका प्रतिनिधित्व इंसान के शरीर में कफ शक्ति करता है।
आहार बिहार में गड़बड़ी हो जाने से यह दोष धीरे-धीरे बिगड़ जाते हैं बिगड़नें वाली दोष ही शरीर के महाभूत और धातुओं को खराब कर देते हैं।
प्रकृति के साथ हुएं खराब संबंध से बार-बार बिगड़ने के कारण इन तीनों महाशक्तियों को आयुर्वेद में दोष इस शब्द से सम्बोधित किया है।
'वायुः पित्तं कफश्चोक्तः शारीरो दोषसंग्रहः ।
मानसः पुनरुद्दिष्टो रजश्च तम एव च' ।। (च.सू. 1:57)
वात, पित्त और कफ ये तीन शारीरिक दोष होते हैं। रज और तम ये दो मानसिक दोष कहे जाते हैं।
दोषों के प्रकार-
दोष शारीरिक एवं मानसिक दो प्रकार के हैं। शारीरिक दोष वात, पित्त एवं श्लेष्मा है जिन्हें त्रिदोष कहते हैं। मानसिक दोष दो प्रकार के होते हैं—रज एवं तम । शारीरिक दोषों का अधिष्ठान कर्मपुरुष शरीर है जबकि मानसिक दोषों का अधिष्ठान इन्द्रिय सहित मन है।
आयुर्वेद विश्व के लिए एक अमूल्य धरोहर है। आज आयुर्वेद विश्व व्यापी संकल्प के साथ दुनिया में आगे बढ़ रहा है। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति मानवोपयोगी है इसमें किसी व्यक्ति के रोगी होने से पहले ही रोग उत्पादक विषयों को शरीर से दूर रखने से संबंधित विचारों के ऊपर अधिक बल दिया गया है।
एक आयुर्वेद ही है जिसमें डिटॉक्सिफिकेशन का सिद्धांत बेहद विस्तृत है।
आयुर्वेद हिंदुस्तान का चिकित्सा पद्धति है। इसके अत्यधिक हानि रहित सुखद प्रभाव को देखते हुए आज अनेक देश आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को अपना रहे हैं।
हर साल हिंदुस्तान से योग ट्रेनर, आयुष डॉक्टर, नेचुरोपैथी चिकित्सकों का विदेशों में मांग बढ़ती जा रही है। इसको देखते हुए दुनिया में बड़े-बड़े आयुर्वेद और नेचरोपैथी कॉलेज खुलने लगे हैं। भारत सरकार भी आयुर्वेद को लेकर उत्साहित दिखाई देते है।
- Spread of Ayurveda to Western countries
आधुनिक काल में पहली बार लगभग 1980 के दशक में भारतीय आध्यात्मिक गुरु महर्षि महेश योगी द्वारा विदेशों में आयुर्वेद का प्रचार किया गया था। सिर्फ यह ही नहीं बल्कि हिंदुस्तान से और भी आध्यात्मिक गुरु जिन्होंने लगभग अनेक देशों में जाकर आयुर्वेद के अनेक रूपों का प्रचार प्रसार किया था । किसी ने आयुर्वेद से आहार व्यवस्था को किसी ने आयुर्वेदिक जीवन शैली तो किसी ने आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को ही वही के भौगोलिक अवस्था को ध्यान में रखकर प्रयोग किया था। Accupressure therapy, जैसे अनेक alternative चिकित्सा पद्धति भारत के ही विद्वानों ने विदेशों में रहकर इन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है।
एलोपैथिक चिकित्सा विज्ञान भी आयुर्वेद से ही प्रेरित होकर तैयार हुआ है इसके साथ-साथ होम्योपैथिक चिकित्सा विधि तो एकदम बगैर आयुर्वेदिक जानकारी के हो नहीं सकता।
सौ बात की एक बात यही है कि विश्व में सबसे पहले आयुर्वेद ही था भारत के विद्वान आयुर्वेद को लेकर अनेक देशों में भ्रमण करने लगे वहीं रहने लगे और उन्होंने अपने बुद्धि से वहां के लोग और समस्या को ध्यान में रखकर नया चिकित्सा पद्धति तैयार किया है।
Adoption of Ayurvedic practices worldwide
आज दुनिया में आप कहीं भी जाइए चिकित्सा की जो भी पद्धती आपको दिखाई देगा उसमें यदि आप आयुर्वेद पढ़े हुए हो तो आयुर्वेद की झलक जरूर दिखाई देती है। विश्व पटल पर आज आयुर्वेद जोर-सोर से प्रचारित है यह जरूर है की अनेक बार आयुर्वेद यह नाम गलत चिकित्सा पद्धति में भी डाला जा रहा है।
मगर यह भी लोगों में आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के प्रति होने वाली आकर्षण को ध्यान में रखकर ही ऐसा किया जा रहा है हर व्यक्ति को हर प्रकार के चिकित्सा अपनाने का स्वतंत्रता है लेकिन अगर कोई आयुर्वेद कहकर के चिकित्सा देता है तो आपका भी यह फर्ज बनता है की इसकी आयुर्वेदिक पद्धति में कितना आयुर्वेद है और कितना नहीं है इसका डिफरेंशियल करना नितांत जरूरी है।
Challenges and Future of Ayurveda
यदि हम शुद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को अपनाने के विषय में विचार करते हैं तो बदलते समय के साथ चिकित्सा पद्धति में किस तरह से परिवर्तन लाया जाए जिससे कि आयुर्वेद का मूल स्वरूप भी बचा रहे और समय के साथ दूसरे चिकित्सा पद्धतियों के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए भी चला जा सके मैं अनेक बार इस विषय में जब सोचता हूं तो काफी कंफ्यूज रहता हूं कि ऐसा कैसे संभव हो सकता है ।
क्योंकि समय चाहे जितना आगे बढ़े लेकिन इंसान का शरीर उसकी बनावट में तो कोई परिवर्तन नहीं आएगा जब नहीं आएगा तो चिकित्सा विधि में भी परिवर्तन नहीं आ सकता तो इसको कैसे मैनेज किया जाए यह एक चेलेंज तो बनता है।
Standardization of Ayurvedic practices
आयुर्वेद बेहद प्राचीन चिकित्सा पद्धति है। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति और जड़ी बूटियों के ऊपर अनेक बार अनेक एंगल से रिसर्च हो चुका है। जड़ी बूटियां को कैसे अनेक दिनों तक उसके प्रभावों को सुरक्षित रखा जा सकता है इसके ऊपर भी अनेक रिसर्च हो चुका है।
कुछ जड़ी बूटियों को यदि हम ताजा ही इस्तेमाल नहीं करते तो वह बिल्कुल काम नहीं करता जैसे गीलोय, कुमारी और गौ घृत को एकदम ताजा ही इस्तेमाल करने के लिए बताया गया है गाय के घी के लिए यदि बहुत पुराना हो तो पुराने रोगों को शांत करने के लिए कुछ दिन तक खिलाने के लिए बताया है लेकिन नित्य उपयोगी तो सिर्फ नया घी ही सही रहता है। जिस वनस्पति से दूध निकलता है उसका नमक (क्षार ) निकालकर सुरक्षित रखना, जीस वनस्पति से खुशबू आता है उससे अर्क निकालकर लंबे समय तक रखना, जो ठोस वनस्पति है उसका आसव अरिष्ट निर्माण कर लंबे समय तक रखने के विषय में बताया गया है। इस प्रकार दवाइयों का वर्गीकरण कर रोगियों में प्रयोग करना चाहिए।
Research and development in Ayurveda
शास्त्र ; शब्द का अर्थ हम अनेक पद्धतियों से लगा सकते हैं। शास्त्र का एक अर्थ यह भी हो सकता है कि जिसको निरंतर परिष्कृत करते रहना पड़ेगा इस अर्थ में भी शास्त्र निहित है। यानी की अगर पूर्वाचार्यों ने यदि किसी विषयों को आधार मानकर कोई गंभीर शब्द द्वारा एक ग्रंथ का निर्माण किया है जिन्हें हम प्राचीन शास्त्र कहते हैं।
मगर वह नवीन तभी होगा जब उस शास्त्र के कुछ पहलुओं को आज के समय मर्यादा अनुकूल परिष्कृत किया जाए - हालांकि ग्रंथ तो वही है सूत्र भी वही है लेकिन अर्थ लगाते वक्त देश काल का विचार किया जा रहा है तभी वह शास्त्र लोकोपयोगी होगा।
लेकिन दिक्कत बस इतना ही है कि शास्त्र के किन विचारों को आज के मुताबिक परिवर्तन किया जाए - यह विचार सहज नहीं है इसके लिए अनेक बार शास्त्र और परिस्थितियों का सम्यक आकलन होना बेहद जरूरी है।
मेरे हिसाब से यह कुछ बिंदु है जिसके ऊपर आज के समय में आयुर्वेदिक विचार करते वक्त आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में कुछ परिवर्तन करना जरूरी है जैसे
- आयुर्वेद में दवाइयों का जो मात्रा है उसे आज के समय सापेक्ष लागू नहीं किया जा सकता इसीलिए ग्रंथ में बताए मात्रा को चिकित्सक युक्ति पूर्वक बदलाव करे।
- आजकल लोगों में सहनशक्ति की बेहद कमी है इसी लिए प्रारंभ में दवाई अल्पबल वाला देकर धीरे-धीरे बलवान दवाई देनी चाहिए। यदि रोग और रोगी दोनों का बल कम है तो अल्प बली, दोनों बलवान हो तो दवाई भी बलवान होना चाहिए। विपरीत होने पर रोगी में दवाइयां काम नहीं करते।
Conclusion
Recap of key points about Ayurveda
- आयुर्वेद दोष धातु और मल का ही समुच्चय है इसके बगैर आयुर्वेद अपूर्ण है
- बाहरी पंच भौतिक प्रकृति के प्रभाव से शरीर में स्थित कफ, पित्त और वात दोष प्रभावित रहते हैं इंसान को प्रकृति के साथ खुद को संतुलन बनाए रखना जरूरी है
- दोषों के कारण धातुओं का निर्माण होता है धातु ही सभी शरीर निर्माण क्रम में अहम भूमिका निभाता है हमारा धातु हमारे आहार विहार से पारितोषिक होते है इसीलिए अपने आहार बिहार को हमेशा संतुलित रखना चाहिए
- दुनिया के कोई भी रोग असाध्य नहीं होते क्योंकि इंसान के अंदर आत्मा जब तक वास करता है तब तक कोई भी कोशिका डैमेज नहीं हो सकता जैसे अक्सर डॉक्टर बताया करते हैं कि आपका यह अंग डैमेज हो गया है यह देखिए कि वह अंग का निर्माणक धातु कौन है उस धातु के लिए उपयोगी चिकित्सा शुरू करिए
- इंसान का मृत्यु का कारण बीमार नहीं बल्कि शरीर मन आत्मा और इंद्रियों का आपसी संबंध पूरी तरह से ना हो पाना ही आयुर्वेद ने मृत्यु बताया है।
- अत्यधिक भौतिक संसाधनों का अधिक उपयोग ही समस्या का जड़ है इंसान जितना स्वयं में स्थित होता है वह उतना अधिक दिनों तक जी सकता है।
त्याग ही जीवन है। इंद्रियों को जितना स्थिर करोगे शरीर में आत्म बल उतना अधिक प्रबल होगा।
Frequently Asked Questions (FAQs)
आयुर्वेद एक उच्च जीवन पद्धति है हमारे पूर्वाचार्यों ने अनेक वर्ष तक रिसर्च करके इसको समाज कल्याण के लिए अनेक विधि द्वारा व्याख्यान किया है। जिसमें पृथ्वी और जल महाभुत से पोषण शक्ति से युक्त कफ,तेज और जल से पचन और बल,वुद्धि प्रदायक पित्त ,और आकाश और वायु से निर्माणक और नियंत्रक वात दोष होने की बातें सिद्ध किया है।
सात धातु और अनेक विध मल(toxin) भी शरीर में शरीर निर्माण के लिए उपयोगी है। खराब आहार बिहार और दिनचर्या से विकृत शरीर में चिकित्सा हेतु आयुर्वेद ने पांच महाभूतों का अध्ययन किया है। हमारा पृथ्वी भी पंचमहाभूत से तैयार हुआ है प्रत्येक वनस्पति और खनिजों में महाभूत का बीजांश रहता है मनुष्यों के लिए आवश्यक होने पर अन्य वनस्पति और खनिजों द्वारा अपने शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रयत्न करना चाहिए जिस के मध्ये नजर अनेक प्रकार के जड़ी बूटी और खनिजों का खोज और उपयोग के बारे में विस्तृत व्याख्यान आयुर्वेद में मिलता है ।इसके बारे में द्रव्य गुण विज्ञान का अधिक अध्ययन करना पड़ेगा।
आयुर्वेद और पूर्व जन्म
आयुर्वेद के मुताबिक इंसान का जन्म जब माता के गर्भ में हुआ तो बताया गया है कि रज और विर्य के संयुक्त होते वक्त साक्षात विष्णु स्वरूप प्राण शक्ति प्रवेश करता है यह तीनों आपस में जब मिल जाते हैं तो ही गर्भ में संतान का विकास होता है। इसका मतलब हुआ इंसान में शरीर के अलावा एक अदृश्य शक्ति जिन्हें प्राण शक्ति कहेंगे भी अपना वर्चस्व रखता है।
आयुर्वेद का मानना है कि इसी प्राण शक्ति के कारण इंसान अनेक जन्मों से जुड़ा हुआ रहता है। इंसान जैसे-जैसे कर्म करता है उस कर्म का अच्छा और बुरा प्रभाव उसके प्रारब्ध से जुड़ा हुआ रहता है वही प्रारब्ध उसी व्यक्ति के प्राण शक्ति से भी जुड़ा हुआ रहता है। इसीलिए माना जाता है कि इंसान एक जन्म में अनेक जन्मों में किये सुख-दुख रूपी कर्म के प्रभाव को भोगता है।
यह बात अनेक बार रोगों के संदर्भ में पढ़ने को मिलता है जैसे ग्रहणी रोग,अर्श, अपस्मार के बारे में व्याख्या करते वक्त आचार्य पूर्व जन्मों के प्रभाव के बारे में भी बताते हैं।
आयुर्वेद को परंपरागत चिकित्सा पद्धति से अलग रखकर नहीं देख सकते। आज का आयुर्वेद चाय किसी भी रूप से क्यों ना हो लेकिन कठिन परिस्थितियों में हमारे आचार्य ने बड़े ही मुश्किल से अपने शिष्यों के द्वारा इस पद्धति को बचाए रखा है। ऐसे महापुरुषों ने लंबे बरसों तक अपने गुरु शिष्य परंपरा द्वारा इस धरोहर को संजोकर रखा है इसीलिए इसको उससे भिन्न दृष्टि बनाकर नहीं देखना चाहिए यह ज्ञान आज भी तभी विशिष्ट हो सकता है जब परंपरागत तरीका से सिखा या सिखाया जाता है।
ईमानदारी से देखे तो आयुर्वेद दोनों पद्धतियों से प्रचलन में आया है पहले तो परंपरागत पद्धति जिसमें ताजी वनस्पतियों के प्रभाव को पहचान कर रोगियों के ऊपर सिर्फ सिद्ध जड़ी बूटियों द्वारा ही उपचार किया जाता था और पद्धति जिसमें संपूर्ण रोगपरीक्षण सहित पंचकर्म चिकित्सा विधि को अपनाया जाता है। हालांकि आयुर्वेद की दृष्टि में शुद्ध चिकित्सा विधि तो पंचकर्म सहित चिकित्सा विधि ही माना जाता है लेकिन परंपरागत वैद्य भी सिद्ध वनस्पतियों के माध्यम से प्रभावकारी जड़ी बूटियां द्वारा रोग उपचार करते हैं तो यह भी बेहद उपयोगी विधा है।
ऐसे लोगों का मानना है की जो वनस्पति अपने प्रभाव से शरीर में काम करता है वह इस बात का अपेक्षा नहीं रखता की कौन सा दोष बिगड़ा है या कौन सा धातु में विकृति है प्रभाव से काम करने वाले वनस्पति की यही खूबी है कि वह हर परिस्थितियों में उस रोग विशेष के लिए बेहतर साबित हुआ है।
जैसे संतान प्राप्ति के लिए एक वनस्पति का नाम आता है जिसका नाम है लक्ष्मणा वुटी यह भी दोषों की अपेक्षा रखें बगैर रोगी को संतान सुख देने वाला है।
आयुर्वेद में अनेक बार तीन दोषों के बारे में जिक्र आता है। आयुर्वेद के हिसाब से कफ,पित्त और वात यह तीनों दोष है।
In Ayurveda, the three doshas are Vata, Pitta, and Kapha. These doshas represent different combinations of the five elements (ether, air, fire, water, and earth) and are believed to govern various physiological and psychological functions in the body. Balancing these doshas is central to Ayurvedic practice to maintain health and prevent diseases.
जिस प्रकार से आज ज्यादातर लोग किसी तरह का सामान्य बीमारी होने पर कभी भी प्रारंभ में आयुर्वेद के पास जाते नहीं है आयुर्वेद के पास ज्यादातर लोग तभी आते हैं जब अनेक पद्धतियों से चिकित्सा करने पर भी रोग जब ठीक ना हो तो थक हार कर आयुर्वेद के पास जाते हैं । तब तक बहुत देर हो चुका होता है इसे क्रॉनिक कंडीशन कह सकते हैं यदि आज आयुर्वेद सफल हो रहा है इसका मतलब आप सहज समझ सकते हैं कि आयुर्वेद क्रॉनिक डिजीज के ही ऊपर काम कर रहा है और उनको ठीक कर रहा है।
बगैर सावधानी पानी पीने पर भी इंसान को हानि हो सकती है। वास्तव में आयुर्वेदिक चिकित्सा से हानि की सवाल ही यहां जायज नहीं है सवाल यह होना चाहिए की क्या अनाड़ी आदमी द्वारा दिया हुआ कुछ भी किसी को हानि करता है कि नहीं ?
तो इसका उत्तर होता है कि ऐसे व्यक्ति द्वारा दिए गए कोई भी चीज किसी व्यक्ति के लिए हानिकारक हो सकता है। प्रशिक्षित चिकित्सक यदि रोग परीक्षण करके आयुर्वेदिक दवाई देता है तो ऐसा संभव नहीं कि रोगी को उससे किसी भी प्रकार से हानि हो सकता हो ।
आयुर्वेद में डायग्नोसिस के अनेक विधि बताए गए हैं । आयुर्वेद में सबसे पहले व्यक्ति का प्रकृति परीक्षण जरूरी होता है। उसके बाद अनेक रोगों के हिसाब से जीह्वा आंख स्क्रीन मल मूत्र पसीना शरीर नाड़ी द्वारा रोग परीक्षण किया जाता है।
वाकई में विश्व के लिए यह एक बड़ी विडम्बना है कि वह खुद के अलावा किसी औरों की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। बेशक आयुर्वेद सबसे प्राचीन चिकित्सा पद्धति है लेकिन एलोपैथ ने लोगों के दिलों दिमाग में अपना वर्चस्व स्थापित किया है इसके अनेक कारण हो सकते हैं। हालांकि समय के साथ एलोपैथ ने आयुर्वेद की बहुत सारे चिकित्सा पद्धतियों को अपने में समाहित किया है बेशक वह उन पद्धतियों को आयुर्वेद का हिस्सा नहीं मानता। किसी पैथिक को मान्यता देना उसकी चिकित्सा की व्यवस्था के आधार पर वहां के सरकार तय करती है। वैसे बहुत सारे hospital में आयुर्वेदिक पद्धति से चिकित्सा होती है क्योंकि आयुर्वेद एक जीवन शैली है जहां व्यक्ति को संतुलित भोजन और दिनचर्या अपनाना होता है। अभी तो लगभग सभी सरकारी hospital's में एक आयुर्वेदिक चिकित्सक भी नियुक्त है जो आयुर्वेदिक पद्धति से रोग परीक्षण कर पंचकर्म विधि से चिकित्सा करता है।
आयुर्वेदिक के मुताबिक आहार ही जीवन का आधार है जैसे एक कहावत है ''जैसे खाए अन्न वैसे लगे मन'' एक संतुलित आहार व्यक्ति के मन शरीर और इंद्रियों का निर्माण करता है। आयुर्वेद में आहार के विषय में पथ्य और अपत्थ्य रूप से वर्गीकृत किया है।पथ्य आहार का मतलब होता है वह आहार जो आपके दोषों के अनुकूल है और जो आपके शरीर निर्माण में अहम भूमिका निभाता है। अपत्थ्य का मतलब होता है वह आहार द्रव्य जो आपके दोष धातु और मल के व्यवस्था को असंतुलन कर सकता है। जिस दोष विशेष ने आपके शरीर का निर्माण किया है वह आहार उसकी गुणधर्म के विपरीत है। व्यक्ति को चाहिए कि इस प्रकार के आहार द्रव्यों का निरंतर त्याग करें।
यदि आप आयुर्वेद चिकित्सा के लिए सक्षम हो, विद्या और सर्टिफिकेट के आधार पर- तो आप अपने घर में या बाहर कहीं भी इस प्रेक्टिस को कर सकते हैं।
हां यह सच है कि विगत अनेक वर्षों से आयुर्वेद में विशेष रिसर्च नहीं हो पाया है लेकिन यह भी सच है कि विगत कुछ वर्षों से आयुर्वेद में अनेक प्रकार के रिसर्च होना प्रारंभ हो चुका है।
हालांकि आयुर्वेद स्वयं से परिष्कृत चिकित्सा पद्धति है लेकिन यह भी सच है कि यह बेहद प्राचीन ग्रंथ है जब यह ग्रंथ लिखा गया था उस वक्त के प्राकृतिक व्यवस्था और लोगों की शारीरिक क्षमता का तुलना आज के लोगों के साथ कदापि नहीं किया जा सकता ।इसका मतलब इस आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में कुछ तो नवीनीकरण बनता है लेकिन वह कैसे होगा आयुर्वेद के किन पद्धतियों को किस तरह से परिष्कृत करें कौन सी चिकित्सा पद्धति को छोड़ें और क्यों यह सवाल जस का तस है ।
हालांकि यह समस्या तो एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में भी देखा जाता है जैसे अमेरिका में रहने वाले अनेक लोगों के शरीर का रिसर्च कर जिन डिवाइस का निर्माण रोग परीक्षण के लिए किया गया क्या वह मशीन भारत के लोगों के लिए उपयोगी हो सकता है क्या डायबिटीज ब्लड प्रेशर आदि का मापदंड उनके और हमारा एक जैसा हो सकता है। यह कुछ सवाल तो यहां भी बनता है।
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