there are three doshas, Kapha, Pitta, and Vata, these three doshas also have 5,5 branches. These three doshas resides everywhere in the body, as long as it does not deteriorate, it is considered to be the protector of the body. A detailed lecture has been done about Tridosha in Ayurveda, about which we are going to write detailed information in this post.
vata dosa = रुक्षः शीतो लघुः सूक्ष्मश्चलोऽथ विशदः खरः । (च
शरीर को जीवनीय शक्ति या प्राण शक्ति प्रदान करने वाला। संपूर्ण दोष धातु मल आदि को निश्चित स्थान पर लेकर जाने वाला।
कफ और पित्त को संचालन करना कफ और पित्त के संपूर्ण कार्य को निश्चित समय पर संपादन करना। मनोवेग को निर्धारित करना आदि अनेकों काम वायु के होते हैं।
वातस्य स्थान
वस्ति:( मुत्र के अवयवा पुरीषाधानां पक्वाशय) कटिः (श्रोणिभाग) सक्थिनी (जंघा) पादा(पैर) वस्थीनि ( हड्डी) पक्वाशयश्च (बड़ी आंत) वातस्थानानि तत्रापि पक्वाशय विशेषेण च.सू.
वात दोष भेदा
हृदिप्राणो वसेनित्यमपानो गुह्यमण्डले।
समानो नाभि देशे च उदानः कण्ठमध्यगः।।
व्यानो व्यापी शरीरेतु प्रधाना पन्चवायवः।।
प्रकर्षेण अनियति प्रकरेण वा वलं ददाति आकर्षयति च शक्तिम् इति प्राण.।।
जो स्वास आहार आदि को खींचता है शरीर में बल का संचार करता है वह प्राण है।
स्थानं प्राणस्य मूर्धोरः(मुर्ध + (उर -हृदय +लंग्स) कण्ठजिह्वास्यनासिका।
यो वायुर्वक्त्र सन्चारी स प्राणो नामदेहधृक्।
सोअन्नं प्रवेशयत्यन्तः प्राणांश्चाप्यवलंवते।।
✓जो प्राणों का अवलम्बन करे।
✓वुद्धि धारण, इन्द्रिय धारण,धमनी धारण, अक्सीजन का ग्रहण और संवहन,थुक्ना क्षिक्ना,उद्गार,वमन, अन्नप्रवेश,
चेष्टाओं का प्रवर्धन,मनोनिग्रहण, इन्द्रियों का अभिवहन एवं प्रकाशन,हर्ष,उत्साह,
✓जो स्वस्थ आहार आदि को खींचता है शरीर में बल को संचार करता है।
✓इसकी वृद्धि होने से उच्च रक्तचाप रक्त संचार में गड़बड़ी ✓अनियमित हृदय गति,तनाव, बेचैनी, चिंता, अनिद्रा, ✓हिचकी ,दमा,स्वासप्रक्रिया में गड़बड़ी हो जाती है।।
उदानः उरसि अवस्थितः कण्ठनासिकानाभिचरो वाकप्रवृतिप्रयत्नो उर्जावलवर्णस्रोतः - चरक.
प्रीणनधीधृतिस्मृतिमनोवोध आदिकृयः।
वाक्प्रवृत्ति से सम्वन्धित स्रोतस का पीडन्।धैर्य वोधन,धीवोधन,सृमृति वोधन,मनोवोधन, आदि कार्यों को संपादित करता है।
वाग्भाषित गीत प्रवृत्तिः।
गले से अच्छा या बुरा ध्वनी उत्पन्न करना जिससे गायन का स्वर नियंत्रित होता है।।
जो शरीर को उठाए रखे कड़क रखे गिरने ना दे प्रत्येक उर्ध्वगमन की क्रिया को संपादन करें।
इसके कमजोर होने से शरीर मे ग्रहण शक्ति खत्म हो जाती है। चाहे वह ज्ञान हो अथवा स्वाद हो।
इसकी गड़बड़ी से सूखी खांसी, टॉन्सिलाइटिस ,कान में दर्द और कमजोरी होती है।
आमपक्वाशयचरः समानो वह्निसंगतः।
रसं समं नयति सम्यक प्रकारेण नयति इति समान.।
सोन्नं पचति तच्च विषेषान् विविनक्ति हि।।
✓अन्न को पचाना सार कीट विभाजन करना।
समान वायु कोस्ठ में विचरण करता हुआ जठराग्नि के समीप स्थित रहकर उसे निरंतर प्रज्वलित करता है।
✓ समान वायु पक्वाषय दोष, आमाशय दोष,मल,शुक्र, आर्तव,रसवह स्रोतस, मैं विचरण करता हुआ वहां स्थित अग्नि दोष, मल , शुक्र, आर्तव, एवं जल का अवलंबन कर अन्न को पाचन के लिए कोष्ढ मे धारण करता है और वहां अग्नि द्वारा पाचन सारकीट विभाजन एवं किट्ट का नीचे पक्वाषाय में भेजने का कार्य भी करता है।
1)अग्नि सन्धुक्षण
2)अन्न धारण/पचन
3)सारकीट विभाजन
4)किट्टाधोगमन.
इसकी कमजोरी से जाठराग्नि की कमजोरी,भूख ना लगना,आदि होते हैं मधुमेह अल्सर,रक्त विकार इसी से होता है।
अपानोअपानगः श्रोणि (पेट के नीचे आगे का हिस्सा )बस्ति मेढ्रो (शिष्न)उरुगोचरः।
शुक्रार्तव शकृन्(पुरीष)मुत्र गर्भनिष्क्रमणक्रियः।।
उपर के वक्षस्थल से निचेके गुदापर्यन्त विचरण कर्ते हुये पुरिष,मुत्र,आर्तव को अपने स्थान पर स्थापित करना वेगकाल आने पर वाहर निकालना।
अपनयति प्रकर्षेण मलं निस्सारयति अपकर्षति च शक्तिमिति अपानः ।।
(धारण और त्यजन कर्म करें)
इसकी खराबी से डायरिया कब्ज़ आंत्रशोथ (कोलाइटिस)पेट दर्द मासिक गड़बड़ी प्रोस्टेटिक ग्रंथि में वृद्धि आदि होता है.
✓देहं व्याप्नोति सर्वंतु व्यानः।
✓व्याप्नोति सर्व शरीर यः व्यान
✓व्यानो हृदि स्थितः
✓व्यानेन रसधातुर्हि विक्षेपोचितकर्मणा।।
✓व्यान के विक्षेपण कार्य के द्वारा रस धातु एक साथ चारों ओर अवाध गति से संपूर्ण शरीर में निरंतर पहुंचाई जाती है।
✓हृदयमे रहकर सम्पूर्ण देहमे सिघ्र गति से सन्चरण करता है
✓प्रसारण,आकुन्चन,उत्क्षेपण,अवक्षेप,निमेष,उन्मेष,जृम्भण,। (उवासी)अन्नस्वादन,स्रोतो शुद्धि कर,सम्भोग मे शुक्र को च्युत कराकर स्त्री योनितक पौचाना, अन्नपचनोपरान्त सारकिट्ट विभजन और सार भाग से रसादि धातुओं का सन्तर्पण करता है।
रस संवहन्कारी।
✓भेलसंहिता- रस संवहन के अंग हृदय,धमनी,सिरायें कोषिकाएं है
✓भेल के अनुसार हृदय से रस धातु धमनियों के माध्यम से सर्व शरीर को पोषक सामग्री पहुंचा कर उतकों से धातु पाक के त्याज्य पदार्थों को लेकर शिराओं द्वारा पुनःहृदय मे वापिस आती है।
इसकी खराबी से अर्धांगबात, हेमीप्लेजिया, पलकों का बार-बार गिरना आदि होते हैं।
अन्य वायु के भेदः-
उद्गारे नाग आख्यातः कूर्म उन्मिलने स्मृत।
कृकरःक्षुतकृज्ज्ञेयो देवदत्तो विजृम्भणे।।
न जहाति मृतंचापि सर्वव्यापी धनन्जय।।
✓नाग वायु-डकार लेने
✓कुर्मवायु-नेत्रपलक वंद एवं खोलने
✓कृकरवायु-भुखप्यास उत्पन्न करने
✓देवदत्त वायु-जृम्भण(उवासी)
✓धनन्जय वायु-शरीर व्यापी (रोमांचित कर्ने)
पित्त में अग्नि महाभूत की अधिकता से सत्वगुण का बाहुल्य है। इसी से उष्णता एवं तिक्ष्णता के साथ रूप, वर्ण,देह,कांति ,संताप पचनकार्य, क्रोध एवं शौर्य की उत्पत्ति होती है।
सस्नेहमुष्णं तीक्ष्णं च द्रवमम्लं सरं कटु । च
स्वेदो( पसीना) रसो (प्लाजमा) लसीका (limph) रुधिरमामाशायश्च पित्तस्थानानिः तत्रापि आमाशयो विशेषेण च.सू.
पित्तादेहोष्मणः पक्ति नराणामुपजायते।
तच्च पित्तं प्रकुपितं विकारान् कुरुते बहुन्।।
देखना, आहार का पाचन करना,शरीर में ऊष्मा की उत्पत्ति करना भूख प्यास का महसूस होना शरीर को कोमल रखना शरीर की कांति मन की प्रसन्नता एवं धारणा शक्ति को बनाए रखना
मेधा और बुद्धि की उत्पत्ति करना।
अग्निश्च त्रय भेदाः-
✓जठराग्नि .. अन्न प्रणाली में पचन का कार्य करती हैं।
✓भूताग्नि-पार्थिवाग्नि,आप्याग्नि,तैजसाग्नि,वायव्याग्नि,आकासाग्नि
✓जठर से पचन के बाद आहार की महाभूत अंशोमे विजातिय द्रव्यों का पाचन कर सजातीय बनाती है।
✓धात्वाग्नि-पाचकांश के रुपमे धातु में रहकर रासायनिक क्रिया करती है और धातु उपधातु एवं धातुमलों की उत्पत्ति करता है।
✓आहार पाक धातु पाक मल पाक का कार्य करता है।
✓ देहाग्नि से उत्पन्न उस्मा से वायु को शांति मिलती है।
✓जब पित्त बढ़ जाता है तो शरीर में ज्वर प्रदायक सूक्ष्म विषाधिक्य को स्वेद और दाह के कारण उन टॉक्सिन को शरीर से बाहर निकालता है।
जो अमाशय,और पक्वाशय के मध्य मे रहता है।कार्य क्षेत्र पित्तधराकला है।अन्न का पचन करके दुस्रे पित्त को अनुग्रह करता है।दोष,रस,मुत्र,पुरिष को पृथक करता है।
1-पचन कार्य
2-पित्त स्थान पर अनुग्रह
3-सारकीट विभाजन
यह भोजन को पचाने का काम करता है। यह आमाशय और पक्वाषय में रहता है। धातु का परिपाक करने में इसका बहुत बड़ा भूमिका रहता है।
आमाशयाश्रयं पित्तं रन्जकं रसरंजनात्।
आमाशय स्थित पित्त को रंजक पित्त कहते है।
कुछ भी पिला,हरा,काला,रंग वनादेता है।
रसस्तु हृदयं याति समानमारुतेरितः।
रन्जित पाचितस्तत्र पित्तेनायाति रक्तताम्।।
समान वायुसे प्रेरित होकर रस हृदयको जाता है।तथा वहां पित्त द्वारा पाचित एवं रंजीत होकर वाहर आता है।
यह रस से रक्त को परिवर्तन करने का कार्य करता है.। यह लीवर में रहता है आमाशय से आए हुए रस को लाल करना या मल,मूत्र, श्वेद, बाल
आदियों को रंगने का काम करता है| इसके खराबी से पांडु रोग होता है। हेपेटाइटिस,पित्तकी पथरी ,लीवर, प्लीहा की कमजोरी, एनीमिया ,गैस्ट्रिक, पीलिया ,उच्च कोलेस्ट्रॉल इसी के वजह से होता है।
यद्पितं हृदये तिष्ठेन् मेधाप्रज्ञाकरं च तत् साधकं।
✓अवलम्वक कफ का तामसअहंकार के प्रभाव को नष्ट करता है।
✓ह्रदय में रहकर मन का कार्य करता है.तमोगुण को दूर करने मेधा और ज्ञान को बढ़ाने ह्रदय में कलुषित उत्पन्न होने ना देना आदि में इसका कार्य रहता है
✓इसके खराबी से अनिद्रा और आलस्य दिखाई देता है।✓समझदारी की कमी मतिभ्रम गलत
अवधारणा तर्क करने वाला बहुत ज्यादा बोलने वाला ध्यान केंद्रित ना होना चंचलता एकाग्रहिन आदि समस्या दिखता है।
रुपग्रहणाधिकृतं पितं..
✓नेत्र में रहकर देखने का कार्य करें।
✓दृश्यमान ज्ञान को Occipital lobe जो मस्तिष्क के पीछे की ओर स्थित है मैं Store करता है।
यत्तु त्वचि पित्तं तस्मिन् भ्राजकोग्नि
✓अभ्यंग,परिषेक,आलेप मे प्रयुक्त द्रव्योंका त्वचा से शोषण कर पचन करता है।
1.शरीर की प्रभा का प्रकाशन
2.द्रव्यों को शोषण एवं पचन
3.शरीर का ताप को मेंटेन करना
4.शरीर मे मृ्दुता,कान्ति, प्रभा,को सुरक्षित करना
यत्तु त्वचि पित्तं तस्मिन् भ्राजकोग्नि।सोभ्यंगपरिषेकावगाहा लेपनादीनां क्रियाद्रव्याणां पक्ता
1)शरीर की प्रभा का प्रकाशन।
2)द्रव्यों को शोषण एवं पचन
3)शरीर ताप को सुरक्षित रखना
4)शरीर की मृदुता,कान्ति, प्रभा को सुरक्षित कर्ना
एग्जिमा, डर्मेटाइटिस, सोरायसिस, मुहासे, चेहरे के दाने ,फोड़े फुंसी इसी के कारण होते है।
स्नेहो वन्धः स्थिरत्वं च गौरवं वृषता वलम्।
क्षमा धृतिरलोभष्च कफकर्माविकारजम्।।
गुरुर्शीतमृदुस्निग्धमधुरस्थिरपिच्छिलाः ।च
प्राकृत श्लेष्मा संधियों को बांधे रखना शरीर को स्थिर रखना, शरीर की स्वाभाविक गुरुता (वृषता)पुंशत्व शक्ति, बल,क्षमा,धैर्य,निर्लोभी बनाए रखने का कार्य करता है।
कफस्य स्थानम्।।
उरः (छाती) शिरो, ग्रीवा(frozen soulder)पर्वा( joints) ण्यामाशयो मेदश्च श्लेष्मस्थानानि, तत्रापि उरो विशेषेण च. सू.)
प्राकृतस्तु वलं स्लेष्मा विकृतो मल उच्यते।
स चैवोजः स्मृत काये।।
त्रिविधं बलमिति-सहजं कालजं युक्तिकृतं चं।
सहजं यच्छरीरसत्वयोः प्रकृतं,कालकृतंम् ॠतुविभागजं वयःकृतं च युक्तिकृतं पुनस्तद् यदाहारचेष्टायोगजम्।
वात के गति कर्म और पित्त के दाह कर्म से शरीर क्षत से क्षीण हो सकता है इसलिए यहां शरीर के अंदर लीपापोती करने के लिए जहां क्षीण हो गया वहां रिपेयर करना जहां घाव हो गया है वहां पुरण करना,स्नेहन,रोपण,स्थिरता,कफ का विशेष काम है।
1. उदक कर्म- शरीर को द्रव से आप्लावित करना , जिससे शरीर में हमेशा स्निग्धता बना रहे। यह कृया कफ का जलीय द्रव्य द्वारा होता है।
2. उपचय वृषता कर्म-
कफ के पार्थिव द्रव्य से यह कार्य संपादन होता है। आहार से प्राप्त प्रोटीन विभिन्न धातुओं की रचना में कोषों की वृद्धि एवं सामान्य कोष की उत्पत्ति के लिए कोषद्रव (प्रोटीन)के संश्लेषण का कार्य करती है। जिससे संतान उत्पत्ति एवं अनुवांशिकी संस्कारों के कार्य होता है।
3. बलकर्म
श्लेष्मा एवं ओज की उत्पत्ति आहार रस की धातु सार भाग से होती है। बल उस शक्ति को कहते हैं जो दोषों का निग्रहण करें और न्यूनाधिक दोषों का नियंत्रण भी करें। जिसे रोग प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं। रस धातु मे रोग निग्रहात्मक बल की क्षमता होती है इसी से उसे ओज भी कह है।
यह शरीर के बल का आधार है। शरीर का धारक है। शरीर में कहीं भी क्षत होते ही कफ का कार्य उस जगह में शुरू हो जाता है। शरीर का रक्षण वृद्धि पोषण करने के लिए यह किसी सिपाही की तरह शरीर में काम करते हैं। टूट जाए तो निर्माण करना। कीटाणु को चारों ओर से कवर करके बाहर करना आदि विशेष कार्य कफ का है।
क्लेदक-उर्ध्वगेआमाशये पाचक पित्त अधोभागे च।
क्लेदकः आमाशय स्थितो अन्नसंघातस्य क्लेदनात
आहार द्रव्यों को गिलाकर स्निग्धता एवं शीतल बनाता है।
यह अन्न्न को साफ करता है।आहार का प्रथम पाचन करने हेतु भोजन का क्लेदन करना ।
आमाशय में प्रथम भोजन का पाक होगा तो मधुर रस उस वक्त वहां उत्पन्न होता है
इसी कारण भोजन के बाद 2 घंटा निद्रा आलस्य आदी उत्पन्न होता है
इसके खराबी से अरुचि मंदाग्नी आदि होते हैं।
यह आमाशय में रहता है!
अवलम्वक-उरस्थान मे-लुब्रिकेशन करने का काम करता है ह्रदय में निवास करता है।प्राणवायु और साधक पित्त की सहायता से हृदय में सात्विक भाव उत्पन्न करता है।
इसके खराबी होने से
हृदय रोग
मानसिक रोग
ओज की कमी,
सांस में घरघराहट,
दमा, ह्रदय में संकुचन,
फेफड़ों में संकुचन, सर्दी ,खांसी, सुस्ती, पेट दर्द, स्वशन विकार
आदि देखा जाता है।
बोधक कफ-
वोधक-जिह्वा मूल मे-
रसनस्थःसम्यग् रसव़ोधनात्।
मधुर- जल+ पृथ्वी=K.कर.p.v.हर
अम्ल- जल +अथ्वी=k.p.कर.v.हर
लवण- पृथ्वि +अग्नि=k.p.कर v.हर
कटु- वायु +अग्नि=v.p.कर k.हर
तिक्त- वायु +आकाश=v.कर k.p.हर
कषाय- वायु+ पृथ्वी=v.कर p.k.हर
यह जीभ में रहता है, स्वाद का पता लगाने का काम करता है। वोधक कफ चेतना का केंद्र बिंदु है।
वोधक कफ की खराबी से एलर्जी,मोटापा,आलस्य,मधुमेह, म्यूकस में प्रॉब्लम होता है।
शिरःस्थ स्नेहसन्तर्पणाधिकृतत्वादिन्द्रीयाणामात्मविर्येणानुग्रहं करोति,।
शिरस्थश्चक्षुतदीन्द्रीयतर्पणात् तर्पकः।(अ.हृ
मस्तुलिंग(मज्जा धातु)तर्पणाख्यं तर्पक।।
डलहन के आधार पर मस्तिष्क में मज्जा का प्रमाण आधा अंजलि है।
मज्जा आधा जमा हुआ और आधा पिघला हुआ घी के आकार से ब्रेन में रहता है। वही मज्जा है।
तर्पक कफ मस्तिस्क में रहता है और मस्तिष्क लगायत संपूर्ण शरीर का पोषण करता है। यह मानसिक भावों को स्थिर रखने में सहायक होता है।
इस के खराबी से साइनसाइटिस, सिरदर्द, गंदविकार आदि होते हैं।
श्लेषक संधिषु स्थितः
जो सर्व शरीर व्यापी है संपूर्ण संधि में रहता है। मर्म संधियों को सुरक्षित रखता है। इसकी खराबी से संपूर्ण संधियों में दर्द होता है।
अर्थराइटिस, ओस्टियोआर्थराइटिस, रूमेटाइड अर्थराइटिस ,जोड़ों में दर्द उंगलियों में दर्द आदि होते हैं।
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