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ताप्यादि लोह का आयुर्वेदिक गुणधर्म तथा उपयोग विधि। Tapyadi loha benefits use and side effect in Hindi

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tapyadi loha : ताप्यादि लोह मेरा सबसे पसंदीदा आयुर्वेदिक दवाई है। दुनिया भर के लगभग सभी वैद्य इस आयुर्वेदिक औषधि के ऊपर बेहद भरोसा करते हैं। आज के समय में दुनिया के सभी वैद्य क्यों इतनी अधिक भरोसा ताप्यादि लोह के ऊपर करते हैं इसके कारण को जानना बहुत जरूरी है। चलिए इस महा औषधि को कैसे तैयार करें कौन-कौन से जड़ी बूटी इसमें डाली जाती है उन जड़ी बूटियों का गुणधर्म और उन सभी द्वारा समूचा तैयार ताप्यादि लोह क्यों है इतना खास इसके प्रयोग अचूक क्यु होता है। Tapyadi loha benefits से संबंधित सटीक जानकारी हम यहां विस्तार से देने वाले हैं  | यदि आप इस प्रकार के बहुत सारे आयुर्वेदिक जड़ी बूटियां के ऊपर रिसर्च करना चाहते हैं और आयुर्वेद सीखना चाहते हैं तो तुरंत संपर्क कर सकते हैं।

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ताप्यादि लोह निर्माण बिधि-tapyadi Loha composition

हरड़, बहेड़ा, आंवला, सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, चित्रकमूल, बायबिड़ग प्रत्येक २॥-२ ॥ तोले, नागरमोथा १ ॥ तोले, पीपलामूल, देवदारू, दारुहल्दी, दालचीनी और चव्य १-१ तोला, "शुद्ध शिलाजीत, सुवर्णमाक्षिक भस्म, रौप्य भस्म और लोह भस्म प्रत्येक १०-१० तोले, मण्डूर भस्म २० तोले और मिश्री ३२ तोले लें। फिर सबको यथाविधि कूट खरल करके मिला लेवें।
मात्रा:- १ से ८रत्ती
 

ताप्यादि लोह के अनेक फायदे | Tapyadi loha benefits 

ताप्यादि लोह पाण्डु रोगाधिकार में आता है / यह रक्तप्रसादक/मुत्रल/शोथघ्न/कृमीघ्न/मलेरिया के बाद आने वाली पाण्डु रोग नाशक/ RBC /WBC/hemoglobin/ पित्त और रक्त धातु के ऊपर कार्यकारी, का निर्माणक, शरीर में खून की कमी,
 varicose veins, blood pressure ,anaemia / के कारण के ऊपर काम करने वाला। बच्चे को मिट्टी खाने कु इच्छा को कंट्रोल करने वाला, रस धातु का शोधन होने के कारण रजप्रसाधन करने वाला ताप्यादि लोह 
Tapyadi loha banane ka tarika

ऐसे अनेक अवस्थाओं में प्रयोग किया जाता है।


ताप्यादि लोह मुख्यतः इन रोगों में अच्छा काम करता है।

पाण्डु रोग , पीलिया, मिर्गी, बालकों में होने वाली धनुर्बात सहित समस्त बालग्रह, पुराना वातविकार, कोढ़ (शरीर के अवयवों का गलना या बिगड़ जाना), खुजली, अम्लपित्त, कब्जियत, high blood pressure वातप्रकोप से रक्तविकार, नवीन पक्षाघात, puss जन्य वुखार, सूतिकाज्वर, दुष्ट रक्तजन्य ज्वर, पुराना विषप्रकोप(like cholesterol, triglyceride; हृदय विकृति से होनेवाला खांसी, क्षतक्षय, अनियमित विषमज्वर, पुराना अजीर्ण रोग, पित्तप्रधान प्रमेह, शोथ रोग, रक्त में विष अथवा क्षारवृद्धि, स्त्रियों के गर्भाशय के दोष, मूर्छा, त्वचारोग जैसे अनेक रोगों में ताप्यादि लोह बेहतर काम करता है।

ताप्यादी लौह को इतने सारे समस्याओं में प्रभावकारी असर दिखाने के लिए प्रयोग किए जाने वाले जड़ी बूटियां के ऊपर विस्तृत विवेचन भी देख लेते हैं।

 

Tapyadi loha के जडीवुटीयां और उनके आयुर्वेदिक गुणधर्म। Ingredients of tapyadi Loha

1. आमलकी 


रस -अम्लरस 
वीर्य -शीत 
विपाक -मधुर 
गुण -गुरु रुक्ष 
प्रमुख कर्म -रसायन 
आमयिक प्रयोग -रक्तपित्त, प्रमेह, वृष्य, त्रिदोषहर, विबन्धहर 

2.हरण -
रस -पंचरस (लवण वर्जित )
वीर्य -उष्ण 
विपाक -मधुर 
गुण -लघु रुक्ष 
प्रमुख कर्म - रसायन 
विपाक -त्रिदोष हर, मलशोधक 


3.बहेड़ा -
रस -कसाय रस 
वीर्य -उष्ण 
विपाक -मधुर 
गुण -लघु रुक्ष 
प्रमुख कर्म -छेदन 
ताप्यादि लोह में यह तीनों द्रव्यों से त्रिफला का योग तैयार होता है। ताप्यादि लोह में प्रयोग किए जाने वाले इन घटकों का आमयिक प्रयोग -भेदन, कास, नेत्ररोग, केश्य, कृमि, स्वरभेद, मदकारी आदि कर्मों के लिए प्रयोग करते हैं।
इन तीनों को हम त्रिफला के रूप में देखते हैं।


त्रिफला कफपित्तघ्नी मेहकुष्ठहरा सरा। 
चक्षुष्या दीपनी रुच्या विषमज्वरनाशनी ॥ (सुश्रुत ३८, भा. प्र./ 

त्रिफला त्रिदोषघ्न, दीपन, रसायन, वृष्य, प्रमेह का नाश करने वाला, मेध्य तथा नेत्र रोगों का नाश करने वाला होता हैं।
यह रोपण तथा त्वचा रोग नष्ट करने वाला होता हैं।यह क्लेद, मेदोरोग, प्रमेह, कफ और रक्त रोगों को नष्ट करता है। इसमें मधुर, शीतगुण के कारण पित्त शामक। रूक्ष और कषाय के कारण कफ  शामक है।


4.सोंठ -
रस -मधुर कटु 
वीर्य -उष्ण 
विपाक -मधुर 
गुण -लघु स्निग्ध 
प्रमुख कर्म -दीपन 
आमयिक प्रयोग -मंदाग्नि, जिव्ह्याकंठ शोधन, कुष्ठा, पाण्डु, शीतपित्त, स्वास, कास 

5.कालीमिर्च -
रस -कटु 
वीर्य -उष्ण 
विपाक -कटु 
गुण -लघु रुक्ष 
प्रमुख कर्म -दीपन 
आमयिक प्रयोग -क्लेद हर, स्वास, कास, दीपक, कृमिघ्न

6.पीपल -
रस -कटु 
वीर्य -उष्ण 
विपाक -मधुर 
गुण -लघु स्निग्ध तीष्ण 
प्रमुख कर्म -प्राणशोधन 

ताप्यादि लोह  निर्माण के लिए अव त्रिकटु को डाला जा रहा है जिसका आमयिक प्रयोग -स्वास, कास, कुष्ट, गुल्म, अर्श, आदि रोगों में प्रभावकारी प्रयोग होता है।
सौंठ, मरिच, पीपल तीनों का सम्मिलित रूप त्रिकटु कहलाता हैं।
त्रिकटु के गुण--- यह स्थूलता (मोटापा), मन्दाग्नि, श्वास, कास, श्लीपद तथा पीनस रोगों को नष्ट करता है।
त्रिकटु दीपनीय,श्वास, कास तथा त्वचा रोगों का नाशक,गुल्म, प्रमेह, कफज रोग, स्थौल्य, मेद, श्लीपद और पीनस रोग में लाभदायक होता हैं। त्रिकटु - वात- कफ रोंगो का नाश करने वाला मन्दाग्नि तथा शूल का नाश करता हैं।

अब ताप्यादि लोह के अंदर विशेष लेखन कर्म के लिए चित्रक को डाला जा रहा है।


7.चित्रक -
चित्रक का आयुर्वेदिक गुणधर्म।
रस -कटु 
वीर्य -उष्ण 
विपाक -कटु 
गुण -लघु रुक्ष तीष्ण 
प्रमुख कर्म -दीपन 
Tapyadi Loha में प्रयोग किए जाने वाले इस चित्र का आमयिक प्रयोग - यह  मंदाग्नि, शोथ, अर्श, कृमि तथा कुष्ठ का नाश करता हैं। यह दीपनिय, शुल नाशक, भेदनीय, वात अनुलोमक, लेखनीय,तृप्तिघ्न,अर्शोघ्न गुणों से भरपूर है।

इसके बाद अनेक रोगों में ताप्यादि लोह प्रयोग करते वक्त दोषसंस्रय से क्रीमी होने के समस्याओं को ध्यान में रखकर रसायन कर्म करने वाला क्रीमी नाशक वायविडंग को डाला जा रहा है।


8.वायविडंग - ताप्यादि लोह में बायविडंग का आयुर्वेदिक गुणधर्म


रस -कटु कसाय 
वीर्य -उष्ण 
विपाक -कटु 
गुण -लघु रुक्ष तीष्ण 
प्रमुख कर्म -कृमिघ्न
आमयिक प्रयोग -अग्निमांद्य, शूल, आध्मान, उदर कृमीवात -विबन्धहर, तृप्तिघ्न,कुष्ठघ्न,शिरोविरेचन,विरेचक।

9.-मुस्तक - नागरमोथा का आयुर्वेदिक गुणधर्म


रस -तिक्त कटु कषाय 
वीर्य -शीत 
विपाक -कटु 
गुण -लघु रुक्ष 
प्रमुख कर्म -दीपन 
पाण्डु नाशक ताप्यादि लोह में डाले जाने वाले वायविडंग का आमयिक प्रयोग - लेखन, ज्वरघ्न, ग्राही, दीपन, पाचन 

10.- पीपलामूल -
रस -कटु 
वीर्य -उष्ण 
विपाक -कटु 
गुण -लघु रुक्ष 
प्रमुख कर्म -दीपन 
आमयिक प्रयोग -ज्वरघ्न, दीपन, कासहर, स्वासहर 

11.देवदारु -
रस -तिक्त 
वीर्य -उष्ण 
विपाक कटु 
गुण -लघु स्निग्ध 
प्रमुख कर्म -वेदना स्थापन 
आमयिक प्रयोग -विबंध्य, आध्यमान, शोथ 

12.हरिद्रा -
रस -तिक्त कटु 
वीर्य -उष्ण 
विपाक -कटु 
गुण -लघु रुक्ष 
प्रमुख कर्म -कुष्ठग्न 
आमयिक प्रयोग -वर्ण, त्वगदोषहर, मेह, रक्तपित्तहर, शोथ, पाण्डु, व्रण, शीतपित्त, कास, अस्थिभग्न 

13.दारू हल्दी -
रस -तिक्त कषाय 
वीर्य -उष्ण 
विपाक -कटु 
गुण -लघु रुक्ष 
प्रमुख कर्म -यकृत्य 
आमयिक प्रयोग -नेत्र कर्ण रोगहर, दीपन, पाचन, ग्राही, गण्डमाला प्रदर,कामला, सर्पदंश  यकृत्प्लीहारोगहर 

14.दालचीनी -
रस -कटु तिक्त मधुर 
वीर्य -उष्ण 
विपाक -कटु 
गुण -लघु रुक्ष तीष्ण 
प्रमुख कर्म -छेदन 
आमयिक प्रयोग -स्वादिष्ट, वातपित्तहर, सुगन्धि

ताप्यादि लोह में इन जड़ी बूटियों के बाद अब कुछ रसायन या भस्म भी डाले जाते हैं चलिए इनके गुणधर्म और प्रयोग की विधि के बारे में जानते हैं।

शुद्ध शिलाजीत :-का आयुर्वेदिक गुणधर्म

रस- कषाय,किञ्चित अम्ल
विपाक- कटु
विर्य- समशीतोष्ण


कश्चित मतेन:-
शिलाजीत में स्नेह और लवण गुण होने से वातघ्न, सर गुण होने से पित्तघ्न, तीक्ष्ण गुण होने से श्लेष्मघ्न और मेदोघ्न, चरपरी और तीक्ष्ण गुण से दीपन, कड़वा रस होने से रक्त विकार नाशक तथा चरपरा, तीक्ष्ण गुण होने से कृमिघ्न है।
शिलाजीत स्निग्ध होने से पौष्टिक, बल्य, आयुवर्धक, वृष्य, विषनाशक, मंगल (रसायन) है।
भगवान धनवंतरी जी कहते हैं कि सब प्रकार की शिलाजीत कड़वी, चरपरी, कुछ कषाय रसयुक्त, सर, (वात और मल-प्रवर्त्तक या सर्वत्र पहुंच जाने वाली)
अष्टांगहृदय में शिलाजीत को उषकादिगण में रखा है यह गण मूत्रकृच्छ्र, अश्मरी, गुल्म, मेदोविकार एवं कफ को दूर करता है।
 शिलाजीत बहुतकाल से मूत्र में आने वाली शर्करा (कंकड़ी) और पथरी का भेदन करके उसे बाहर निकाल देती है


सुवर्ण माक्षिक भष्म का आयुर्वेदिक गुणधर्म


यह लोह+ताम्र का सौम्य कल्प है।
रस-मधुर, तिक्त
वीर्य-शीत स्तम्भक,सौम्य, :- रक्त प्रसादक,वृष्य, योगवाही,शामक, शक्ति वर्धक,पित्तशामक, 
रोग:- पित्तप्रधान कफावृत्तपित्त रोग, पित्तज शीरशूल, अम्ल पित्त, परिणाम शुल में उपयोगी पर सभी पित्तज होनी चाहिए।
सुतसेखर का प्रयोग वत पित्त प्रधान जिसमें चक्करलक्षण में होता हो में दिया जाता है। स्वर्ण मासिक का प्रयोग जिस शीर शूल में उवाकी, मुंह में कडवापन, अरुचि, बमन इन लक्षणों में शीरशूल कम हो जाता हो में उपयोगी है। 

रौप्य भष्म का आयुर्वेदिक गुणधर्म
रस- कषाय अम्ल 
विपाक- मधुर
प्रभाव -शितल,सारक,लेखन,रुचिप्रद, स्निग्ध,बृंहणक,रक्तवाहनीगत वातप्रकोप शामक,
स्थान:- मूत्रपिण्ड, मस्तिष्क,वातवाहिनीयां , स्वतन्त्र वातप्रकोप
हेतु:- अतिश्रम,अतिवाचन,अतिजागरण, मनन,शोक, भय से वात वृद्धि, मस्तिष्क की शक्ति क्षीण,थकावट, बेहोशी
रोग- जीर्णे कलायखन्ज, पक्षाघात,(आमानुवन्ध में रजत के जगह योगराज प्रयोग करें)।

लोह भष्म का आयुर्वेदिक गुणधर्म


रक्तकण वृद्धि कर/शर्वांग सोथ नाशक 
रस- कषाय,
विर्य- उष्ण-शीत
विपाक-मधुर
लेखन,बल्य,गुरु,सारक,रक्तमांस पौष्टिक, अण्डकोष वल्य,चक्षुष्य,वृष्य,योगवाही,
स्थिन:-यकृत प्लीहावृद्धि नाशक,पाण्डु, हलीमक रोग, , पित्तज और कफज प्रमेह,उन्माद, धातु निर्बलता, संग्रहणी, मंदाग्नि,प्रदर, मेदो वृद्धि,कृमि रोग,कुष्ठ, गुल्म,उदर रोग ,उदर शूल,आमविकार,क्षय,विष, हृदयरोग , श्वास कास,अर्श, नेत्र उष्मा नाशक, रक्तपित्तहर,पित्ताश्मरी नाशक,

मण्डुर भष्म:-(लोह ही अंशात्मक रुप में है) का आयुर्वेदिक गुणधर्म

रस- कषाय
वीर्य- शीत सौम्य
गुण:- रक्ताणु उत्पादक(रंजक पित्त निर्माणक)
दुष्य:-रक्त,मांस, मज्जा
प्रवाभी स्थान:- यकृत,प्लीहा,फुफ्फुस,हृदय,अग्न्याशय 
प्रभाव:-छोटी बालक या सौम्य प्रकृति वालों के लिए विषेश प्रभाव
रोग:-पाण्डू, शोथ, प्रमेह, संग्रहणी ,हलिमक,कमला, कुंभ कामला नाशक, छोटे बालकों के लिए निर्बलता प्लीहा वृद्धि, मिट्टी खाने से होने वाली पाण्डू, स्त्रियों के गर्भाशय और बीज कोषों की निर्बलता, मासिक धर्म न आना रक्तप्रदर,श्वेतप्रदर,आदि विकृतियों को नाश करता है।

मिश्री
मिश्री को योगवाही,द्रव्य दोषहरणकर ,वल्य,वृष्य,रोचक, इंद्रिय बलप्रदायक आदि गुणों से जाना जाता है।
द्रव्य में कोई भी दोष हो मिश्री उसे नष्ट करता है और रुचिकर होने से यह इंद्रियों को पुष्ट करता है, योगवाही होने से यह दवाई के गुणों को multiple करके शरीर में ले जाता है। ताप्यादि लोह में प्रयोग किए जाने वाले सभी दवाइयों के अवगुणों को यह नाश करता है।
इस प्रकार इतने सारे दवाइयो द्वारा तैयार होता है अमृत स्वरूप ताप्यादि लोह ।

ताप्यादि लोह प्रयोग की खास विधि । Tapyadi Loha: how to use effectively 


रक्तपित्त रोग के लिए ताप्यादि लोह का प्रयोग 

  • यदि आप रक्तपित्त रोग के लिए ताप्यादि लोह का प्रयोग कर रहे हैं तो यहां दूर्वा स्वरस या वासा स्वरस के साथ ताप्यादि लोह का प्रयोग कर सकते हैं।
  • यदि आप दाह ( बर्निंग सेंसेशन) के लिए प्रयोग करना चाहते हैं तो आप ताप्यादि लोह को दाडीम स्वरस के साथ ले सकते हैं।
  • यदि आप कुष्ठ रोग समन के लिए ताप्यादि लोह का प्रयोग कर रहे हैं तो अनुपान में आप तिक्तमधुर रस का प्रयोग कर सकते हैं।
  • ताप्यादि लोह का प्रयोग यदि आप पाण्डु रोग के लिए कर रहे हैं तो मुलीस्वरस या गोमूत्र डाला हुआ दूध को अनुपान के रूप में ले सकते हैं।
  • रोग और अवस्था भेद से ताप्यादि लोह को अमलतास,आवला का मुरब्बा आदियों का प्रयोग कर सकते हैं

ताप्यादि लोह प्रयोग के विषय में अनेक ग्रंथ कारों ने अनेक विधि बताया है।


ताप्यादि लोह प्रयोग में वरते खास सावधानी

ताप्यादि लोह में ताम्र भष्म और मंडुर डाला जाता है अब आपको यह खास ख्याल रखना है जो फार्मेसी इसको बनाती है क्या वह सच में शुद्ध इस भस्म को डालती है या नहीं - अक्सर बाजार में अशुद्ध दवाइयों को बेचकर अधिक मुनाफा कमाने की चर्चाएं ज्यादा रहती है। इसीलिए यदि आप इन दवाईयों के प्रयोग से सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो आप इसका तभी प्रयोग करेंगे जब आप खुद विधि पूर्वक इन सभी जड़ी बूटियों का निर्माण कर सकते हैं। यदि आप ऐसा नहीं कर सकते हैं तो यह विश्वास कर पाना थोड़ी मुश्किल होगी कि बाजार से चाहे किसी भी फार्मेसी से इसको आप खरीदेंगे उससे आपके रोगी को कोई हानि नहीं होगी।

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