सभी रोगों का नामाकरण करना सम्भव नहीं होता । नवीन रोग भी शरीर में उत्पन्न होते रहते हैं। चिकित्सक को दोष-दूष्य स्रोतस के आधार पर ऐसे रोगों का ज्ञान कर लेना चाहिए और तदनुसार चिकित्सा करनी चाहिए। नवीन रोगों के नविन नाम रखे जा सकते हैं। प्रकृति, अधिष्ठान, निदान, लक्षण, दोषों की अंशांश कल्पना के आधार पर रोग अपरिसंख्येय हो सकते हैं।
ग्रंथों में जिन रोगों का वर्णन मिलता है उनके नामकरण के आधार चरक ने ये बताये हैं-रुजा, वर्ष, समुत्थान, स्थान तथा लक्षण ।
वास्तव में यह शब्द नवीन संभावित रोगों के लिए विचार करने के लिए भी एक आधार बन सके इसके लिए इस तरह का शब्दों का चयन किया गया था। जैसे:-
1.विकारनामा कुशलो न जिह्नीयात् कदाचन ।
न हि सर्व विकाराणाम् नामतोस्ति ध्रुवा स्थितिः ॥ चरक सू 18/44
2.विकाराः पुनरपरिसंख्येयाः प्रकृत्यधिष्ठान-लिंगायतन विकल्प-विशेषापरिसंखेयत्वात्। चरक सू .20/3
3.त एवापरिसंख्येयाः भिद्यमानाः भवन्ति हि ।
रुजावणं समुत्थान-स्थान संस्थान नामभिः ॥ चरक
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शूल, तोद, दाह, पोष. प्लोष, हर्ष आदि ।
जैसे यहां व्याधि को समझने के लिए शूल शब्द आया है रोगी बोलेगा अमुक स्थान में शूल यानी दर्द है। इसका मतलब संबंधित वातादी दोष अमुक रस, रक्तादी दुस्य को प्रभावित करके वेदना उत्पन्न कर रहा है।
पाण्डु, कामला, हलीमक, नीलमेह, कालमेह पीताभता, श्वैत्यम् आदि ।
आयुर्वेद के अनुसार शरीर में वर्ण को डिसाइड करने वाला रंजक पित्त है। यदि ऊपर बताए हुए रंग के आधार पर शरीर में कुछ दिखता है तो समझ में आता है कि रंजक पित्त किन स्रोतसों के अंदर विकृति उत्पन्न कर रहा है|
मृत्भक्षणजन्य पाण्डु, कृमिज। हृद्रोग, मदात्यय, द्विष्टार्थसंयोगज छर्दि,विष, साहसज यक्ष्मा आदि ।
समुत्थान का मतलब होता है अमूक कारण से व्याधि का उत्पन्न होना जैसे सबसे पहले ऊपर लिखा है मृत्भक्षणजन्य पाण्डु, तो यहां पर ग्रंथ कार बताना चाहते हैं कि यह जो पाण्डु है वह मिट्टी को खाने से उत्पन्न हुआ है।
शिरशूल, ग्रहणी,मन्यास्तंभ, पादहर्ष, हनुग्रह,प्लीहोदर, हृदरोग, स्तनरोग, योनिव्यापद् आदि ।
यहां स्थान विशेष के आधार पर होने वाली लक्षणों को देखकर व्याधि का नामकरण किया जा रहा है। जैसे अगर सिर शूल हो रहा है तो शिर की व्याधि, ग्रहणी रोग होने का मतलब पक्वाशय गत व्याधि आधी समझना चाहिए।
मूर्च्छा, उन्माद, मूत्राधान, पक्षवध, पंगु, खंज,स्वरभेद, कुष्ठ, अम्लपित्त, प्रमेह, अतिसार, जलोदर, स्वास आदि। ये सब नाम संस्थान (लक्षण) के आधार पर दिये गए हैं।
धनुस्तम्भ, मसूरिका, कोष्टुकशीर्ष, यह भी एक प्रकार का व्याधि को समझने के लिए बताया होगा स्थान है यदि कोई व्यक्ति को मिर्गी जैसे दौरे आते हैं लेकिन उस वक्त शरीर धनुष के समान पीछे की ओर खींचाव होता है इसका मतलब आचार्य ने इसको धनुस्तम्भ बताया है।
हारिद्रमेह, मंजिष्ठ मेह, इक्षुमेह तथा अन्य विशेष आधारों पर भी विसर्प, राजयक्ष्मा, रक्तपित्त रोगों के नाम दिये जाते हैं।
सुश्रुत ने नानात्मज एवं आविष्कृततम रोगों की संख्या ११२० बताई है और नवीन रोगों का नवीन नामकरण करने की स्वतन्त्रता दी है।
“अपरिसंख्येयाः व्याधयः' तथा 'न हि सर्वविकाराणां नामतोस्ति ध्रुवा स्थितिः' (चरक)
इन वाक्यों से स्पष्ट है कि रोगों के असंख्य भेद हो सकते है। परन्तु शास्त्रों में जिन नानात्मज एवं सामान्यज या आविष्कृततम रोगों का वर्णन मिलता है उनके आधार पर रोगों के भेदों एवं प्रकारों का ज्ञान कर सकते हैं ।
काश्यप ने महर्षि भार्गव के मत को लिखा है कि 'एको रोगो रुजाकरण सामान्यादिति भार्गवः' । अर्थात् भार्गव ऋषि के मत से सभी रोगों में रुजा (पीड़ा) समान होने से रोगों का वर्ग एक ही है ।
इसी प्रकार का एक विचार महर्षि पुनर्वसु आत्रेय का भी है- एकमेव रोगानीकं दुःखसामान्यात्' च. वि. ६।३ ।
अर्थात् सभी व्याधियों में दुःख सामान्य होने से रोग एक ही प्रकार के होते हैं।
महर्षि हारीत सभी व्याधियों की उत्पत्ति इस जन्म के या पूर्व जन्म के कमों को मानते हैं और इसलिए उनके अनुसार सभी व्याधियां कर्मज हैं।
कर्मजा व्याधयः सर्वे भवन्ति हि शरीरिणाम्-' हारीत संहिता |
आश्रय या अधिष्ठान के भेद से रोग दो प्रकार के होते हैं-
शारीरिक और मानसिक । '
शरीरं सत्वसंज्ञं च व्याधीनामाश्रयो मतः' च. सू. १९४५
तथा मनोधिष्ठानं शरीराधिष्ठानं च च. वि. ६।३
एवं 'त एते मनः शरीरा धिष्ठाना:' सु.सु १ से स्पष्टतः रोग के शारीरिक और मानसिक भेद हो सकते हैं।
द्वे रोगानीके भवतः प्रभावभेदेन साध्यमसाध्यं च' च. वि. ६।१
अर्थात प्रभाव भेद से रोग के दो प्रकार होते हैं-साध्य और असाध्य ।
मृदु, दारुण । कारण भेद से भी दो प्रकार-
स्वधातुवैषम्यनिमित्तज, आगन्तु निमित्तज ।
इसी को निज और आगन्तु भेद भी कह सकते हैं ।
-आमाशय समुत्थ 'पक्वाशय समुत्थ' । दोषों का कोष्ठगत स्थानों पर चय होता है। सारा कोष्ठ आमाशय (अन्नवह स्रोतस) तथा पक्वाशय (पुरीषवह स्रोतस ) इन दो भागों में भी विभक्त है। कोष्ठ का एक पर्याय 'आमपक्वाशय:' भी है। इस सन्दर्भ में आमाशय का क्षेत्र Ileo caecal Junction तक (उण्डुक्तक) है, और यह सारा स्थान कफ और पित्त का है । अतः कफ और पित्त की व्याधियाँ प्रायः आमाशयोत्थ होती है और वातविकार प्रायः पक्वाशयोत्थ होते हैं ।
स्वतन्त्र और परतन्त्र भेद से भी व्याधि के दो भेद कहे गए हैं ।
यथोक्त निदान-लक्षण वाली व्याधि स्वतंत्र कहलाती है। किसी दूसरे रोग से उत्पन्न या दूसरे रोग पर आश्रित व्याधि परतंत्र कहलाती है।
उदाहरणार्थ- स्वतंत्र ग्रहणी, परतंत्र ग्रहणी, स्वतंत्र कामला, परतंत्र कामला, स्वतन्त्र मधुमेह, परतन्त्र मधुमेह |
शस्त्र साध्य, स्वेदादिक्रिया साध्य
शस्त्रसाध्य रोगों में स्नेहादि क्रियायें भी चलती है परन्तु स्नेहादि क्रिया साध्य व्याधियों में शस्त्रक्रिया नहीं होती ( मु०सू०२४) ।
चरक ने व्याधि के तीन भेद भी बताये हैं-
निज व्याधि और आगन्तुज व्याधि,
मानस' त्रयो रोगा इति निजागन्तु मानसा:।
तत्र निज: शरीर दोष समुत्थ:आगन्तुर्भूत विष वायु-अग्नि,सम्प्रहारादि- समुत्थ: , मानस: पुन:इष्टालाभात् लाभात् च अनिष्टस्य उपजायते ,च.सू.11/47
सौम्य,आग्नेय, एवं वायव्य भेद से भी व्याधि के तीन भेद चरक को बताना पड़ा। मगर यह भेद दोषों के आधार पर तय होता है।
वाग्भट ने दोषज( दृष्टापचारज) कर्मज पूर्वापचारज तथा दृष्टादृष्ट कर्मज (दोष कर्मज) इस तरह तीन भेद बताया है।
ग्रंथ कार व्याधि के संदर्भ में और तीन भेद बताते हैं उनमें से पहला है साध्य व्याधि दूसरा है याप्य और तीसरा है असाध्य यह भी व्याधि का ही भेद रूप है।
इसके अलावा भी कुछ ग्रंथ कार ब्याधि भेद स्वरूप
कर्मज, दोसज और सहज व्याधि कहकर जानते हैं।
सुश्रुत ने व्याधि को अध्यात्म परिप्रेक्ष्य से देखते हुए और आगे तीन भागों में बांटा है।
आध्यात्मिक जनित व्याधि, आधिभौतिक जनित व्याधि और आधिदैविक जनित व्याधि यह तीन भेद भी व्याधि भेद को दर्शाने वाला होता है।
आध्यात्मिक आदिबल प्रवृत्त व्याधि
आदिबल प्रवृत्त व्याधि के संदर्भ में मात्रिज, और कुलज कहकर बताया है। मात्रिज का मतलब माता के परिवार से संबंध रखने वाले लोगों के शरीर में उत्पन्न व्याधि भी मां के माध्यम से अपने शरीर में आ सकता है।
कुलज का मतलब पितृज भी होता है इसके तहत रोगी में अपने पिता के वंश में जन्म लेने वाले लोगों के शरीर में जो व्याधि है वह भी पिता के माध्यम से अपने पास आ सकता है इसे जेनेटिक रोग भी कह कर जाने जाते हैं।
कुष्ठ रोग और अर्श आदि रोग जो पिता के दूषित शुक्र और माता के दूषित रज से उत्पन्न व्याधि के रूप में जाने जाते है इसे आदिबल प्रवृत्त व्याधि कहकर जाने जाते हैं।
जन्मबल प्रवृत्त
जन्मबल प्रवृत्त के अंतर्गत दो तरह के कंडीशन वाला व्याधि देखा गया है। पहला है रसकृत अवस्था दूसरा है दौहृदापचार कृत व्याधि।
इसका सीधा सा मतलब यह होता है कि मां के गर्भ में बालक के रहते हुए माता द्वारा किए गए अहित आहार विहार से बालक को जन्म से ही लंगड़ापन, कान से कम सुनाई देना, मुंह से बोली उत्पन्न ना होना, बार-बार आंखें फड़फड़ाना, तथा शरीर का आकार अति छोटा रह जाना आदि समस्या मां के गलती के वजह से व्यक्ति में व्याधि के रूप में हमेशा दिखता है इसे ही जन्मबल प्रवृत्त कहा जाता है।
दोषबल प्रवृत्ति
दोषबल प्रवृत्ति के अंतर्गत व्याधि के रूप में आमाशय समुत्थ व्याधि या पक्वाशय समुत्थ व्याधि ।
शारीरिक और मानसिक दोष से उत्पन्न होने वाली व्याधियों को दोषबल प्रवृत्त व्याधि के रूप में जाना जाता है। शारीरिक दोषों से उत्पन्न व्याधियों को आमाशय समुत्थ और पक्वाशय समुत्थ व्याधि कह कर जाना जाता है। समुत्थ का मतलब होता है उठना या उठने वाला या प्रारंभ होने वाला।
संघातबल प्रवृत्त व्याधि।
संघातबल प्रवृत्त व्याधि को भी आचार्यों ने प्रमुख व्याधियों के हेतु माना है। इसके अंतर्गत शस्त्र कृत या व्यालकृत इन दोनों अवस्थाओं से संघातबल प्रवृत्त व्याधि को जाना जाता है।
संघातबल प्रवृत्त दोष बाहरी और अंदरूनी कारणों से उत्पन्न होता है। बाहरी कारणों से उत्पन्न दोषों को ऑपरेशन के माध्यम से ठीक किया जाता है। शस्त्र कृत के अंतर्गत एक्सीडेंट होना, या किसी शस्त्र के शरीर के अंदर चुवे जाने से होने वाली समस्या को देखा जाता है मगर व्यालकृत के अंतर्गत किसी जानवर द्वारा चोट लगना या किसी जानवरों द्वारा काटे जाने से होने वाली व्याधि को देखा जाता है।
कालबल प्रवृत्त व्याधि।
कालबल प्रवृत्त व्याधि को ज्यादातर आचार्यों ने प्रमुखता से लिया है। आचार्यों ने कालबल प्रवृत्त व्याधि कहकर व्यापन्न ॠतुकृत तथा अव्यापन्न ॠतुकृत व्याधि कहकर इसे दो भागों में विभक्त किया है। ॠतु एवं काल संबंधी स्वाभाविक या अस्वाभाविक कारणों का जैसे एकदम ठंडा और एकदम उष्णादी भाव द्वारा शरीर में व्याधि को प्रकट करना आदि जाना जाता है।
दैवबल प्रवृत्त व्याधियों के प्रकरण।
विद्युत्दशनकृत -
आसमान से बिजली गिरने से शरीर में होने वाली व्याधि।
पिशाचादि कृत-
भूत पिशाच आदि दुष्ट आत्माओं द्वारा प्रदत्त शारीरिक और मानसिक व्याधि।
संसर्गज
संगति से पैदा होने वाली शारीरिक और मानसिक व्याधि।
आकस्मिक
भूख,प्यास,बुढ़ापा,अनिद्रा,मृत्यु यह सभी स्वभाव बल प्रवृत्त व्याधि है।
सुश्रुत ने शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक तथा स्वाभाविक ऐसे चार भेद भी किये है। चरक ने वातज, पित्तज, कफज और आगन्तुक ऐसे चार भेद किये हैं ।
काश्यप ने भी चरक का अनुसरण किया है। कुछ आचार्य सन्निपात को मिलाकर पांच भेद भी बताते हैं । काश्यप ने ६ रसों से उत्पन्न होने से ६ प्रकार भी बताये हैं । काश्यप ने एकदोषज, इन्द्रज एवं सान्निपतिक बताकर सात भेद भी माने हैं। अष्टांग संग्रह में सहज, गर्भज, जातज, पीड़ाज, कालज, प्रभावज तथा स्वभावज इन सात भेदों का भी वर्णन है। ये सात भेद सुश्रुतोक्त आदिवल प्रवृत्त उपभेदों में समाविष्ट किये जा सकते हैं। काश्यप ने स्वयं वर्णित सातभेदों के साथ आगन्तु एक भेद मिलाने से चार प्रकार के भेद भी बताये हैं ।
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