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table of contents.

  1. What is Ayurveda?
  2. patient identification.
  3. What is the purpose of seeing a pulse What to look for in a pulse
  4. Dosa qualities and temperament.
  5. Janma prakrity and vikrity
  6. Organ pulse .
  7. Practical Curiosity ....Etc..

Nadi parikcha Book Pdf Read is a great way to know about all types of body and mind related ailments.
 By the way, different writer have given detailed lectures on pulse Diagnosis from time to time.
 But the practical pulse Diagnosis method given by our guru is the essence of the subjects propounded by all those masters.
 Click on the link given below to get the pulse test book pdf with very simple and quick to remember and specific information related to Ayurvedic Kaya Chikitsa.

Content in my  personal pulse Diagnosis Book pdf :

First day note:-

बृहद् नाड़ी परीक्षण विधि

आयुर्वेद किसे कहते हैं?

आयुरस्मिन् विद्यते अनेन वा आयुर्विन्दतीत्यायुर्वेद:।
जिसमें दीर्घायु की सुनिश्चितता हो या जिससे आयु जानी जाती हो वह आयुर्वेद है।

सिर्फ आयु ही पर्याप्त नहीं बल्कि...
हिताहितं सुखं दुःखं आयुस्तस्य हिताहितम् ।
मानं च तच्च यत्रोक्तं आयुर्वेदः स उच्यते ॥
अर्थात् हितायु, अहितायु, सुखायु एवं दुःखायु; इस प्रकार चतुर्विध जो आयु है उस आयु के हित तथा अहित  एवं उस आयु का स्वरूप जिसमें कहा गया हो,उसे आर्युवेद कहा जाता है।

आयु किसे कहते है?

शरीरेन्द्रियसत्वात्मसंयोगो इति आयुः
शरीर इंद्रिय, मन और आत्मा के संयोग को आयु करें।

आयु जान कर क्या करोगे

 स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनं च।
"इस आयुर्वेद का प्रयोजन स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी व्यक्ति के रोग को दूर करना है।"

आयुर्वेद सिद्धांत का प्रयोजन क्या है?

धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्।।
धर्म अर्थ काम मोक्ष ही स्वस्थ शरीर का मूल है । इसीलिए
चतुर्विध पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए आयुर्वेद की जरूरत है।


   
      2.यथा विणागता तन्त्री सर्वान्न् रागान्प्रभाषते।
        तथा हस्तगता नाड़ी सर्वान्रोगान् प्रकाशते।।

3.करस्याङ्गुष्ठ मुले या धमनीरेडीयल आर्टिज जीवसाक्षीणी।
4.अंगुष्ठ मूलमधिपश्चिमभागमध्यम् नाडी प्रभंजन गतिं सततं परिक्षेत्।।

क)रावणकृत
ख)महर्षि कणाद
ग)शार्ङ्गधर संहिता

5.स्त्रीणां भिषगवामहस्ते वामेपादे च यत्न च।
शास्त्रेण सम्प्रदायेन तथा स्वानुभवेन च।।

        स्त्री left hand पुरुष right
6.प्रात:कृतसमाचार:कृताचार:परिग्रहम्।
सुखासीन:सुखासीनं परिक्षार्थानुपाचरेत्।।

                  

रोगी की पहचान

. रोगी के दोनों हाथ पकड़ लो दोनों लोग अपने अपने आंख को बंद करो.
रोगी के हाथ ठंडा लगे तो यह समझ लो कि रोगी आप पर विश्वास नहीं कर रहा है।
यहां रोगी का हाथ गर्म होनी चाहिए।

. नाड़ी परीक्षा वर्ज्य वैद्य और रोगी दोनों के लिए


1- नहाने  के तुरंत बाद
2- भोजन के तुरंत बाद
3-अधिक भूख और प्यास लगने पर 
4-क्रोधातुर
5-शराब पीने के बाद
6-व्यायाम से थका हुआ शरीर

Second days Nadi Pariksha Pdf note.


रोगक्रांत शरीरस्य स्थानान्यष्टौ परीक्षयेत्।
        नाड़ी(प्राणवह स्रोतस) मूत्रं(किडनी+अपान) मलं(अन्नवह स्रोतस+अपान) जिह्वां(मध्य शरीर) शव्द(उदान+प्राण)स्पर्श(व्यान+भ्राजक+श्लेषक)दृगा(आलोचक पित्त+रंजक पित्त+)कृतिम्।।जाति+सम्प्रदाय+लुलालंगडा+कमजोर+दृढ शरीर+age+स्त्री पुरूष+शरीर का लम्वाग चौडाई

यदि किसी भी तरह से रोग परीक्षण ना हो और कोई दवाई रोगी को सही काम ना कर रहा हो तो।
               {Medical astrology}

सवाल है कि नाडी देखने का प्रयोजन क्या है नाड़ी में क्या देखें

समदोषः(3) समाग्निश्च(सात धातु,पांच महाभूत,3 दोष=13)समधातु (7)मलक्रियः । 
 शरीर से निकलनेवाली मैल या विकार ।रस का मल-जिव का मैल,आंख के आंसु का मैल,रक्त मल-रंजक पित्त मांस-कान का मैल मेद-दांत,लिंग का मैल, अस्थि-नाखुन मज्जा-नेत्र के कीचड,शुक्र-युवान् पिडका,कील मुहासे
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ॥

      तो यह किस तरह से विगडता है।
         क्या अचानक विगडता है?

            चिकित्सा षड्क्रियाकाल
संचयं च प्रकोपं च प्रसरं स्थान संस्रयम्।
       व्यक्ति भेदं च यो वेत्ति दोषाणां स भवेद्भिषक्।।

स्वतन्त्र दोष संचय-आहार विहार जनित 
परतन्त्र दोष संचय-परिस्थिति जनित
संचय विवेचना--

संचय लक्षण
वात-कोष्ठ का भारी पन,जकडाहट मालूम होना
पित्त- शरीर त्वचा नाखून आंख का पीला सा दिखना एवं धातु पाक की क्रिया में मंदता आना।
कफ- शरीर में गुरुता आलस्य रुप लक्षण होना

प्रकोपावस्था
वात- कोष्ठ मे पीडा, पेट में गुड़गुड़ाहट की आवाज
पित्त- प्यास लगना खट्टी डकार आना एवं शरीर में जलन होना
कफ-  भोजन के प्रति द्वेष एवं जीमचलाना
प्रसरावस्था-
 जिस प्रकार तालाब आदि में जल का अधिक संचय और वृद्धि को प्राप्त होने पर बांध को तोड़कर पानी चारों और वह कर दूसरे पानी से मिलने लग जाते हैं वैसे ही प्रकुपित दोषों की और भी वृद्धि होने पर वे अपनी मर्यादा तोड़ कर रक्त के साथ सारे शरीर में फैल जाते हैं।
वात- बिमार्ग गमन, आटोप( पेट में गुड गुडाहट)
पित्त-ओष(उष्णता की प्रतीति) चोष( चुभन  कि सी वेदना,) शरीर में जलन, डकार आना
कफ- भोजन में अरुचि भोजन का ना पचना अंगसाद(थकावट)वोमाइटिंग टेंडेंसी

       ( स्थान संस्रय) दोषदुष्यसम्मुर्छणं स व्याधिः।
एवं प्रकुपिताःदोषाःतांस्तान् आगम्य तांस्तान् व्याधिन् जनयन्ति।रोगप्रभृतिन् तेषामेव मभिसन्निविष्टानां पूर्वरुप प्रादुर्भावः।
उक्त प्रकार से प्रभावित हुये दोष शरीर के भिन्न-भिन्न  प्रदेशों में पहुंचकर जहां कमजोर स्थान होगा वहां रोग उत्पन्न करते हैं।

कुपितानां हि दोषाणां शरीरे परिधावताम्।
यत्र संगः खवैगुण्याद् व्याधिस्तत्रोपजायते।।सु.सू.24.10

क्षिप्यमाणःखवैगुण्याद् रसः सज्जति यत्र सः।
करोति विकृतिं तत्र खे बर्षमिव तोयदः।। च.

रस धातु व्यान वायु की क्रिया से परी भ्रमण करता हुआ जहां श्रोतसों की  विकृति से रुक जाती है वहीं पर विकार उत्पन्न  हो जाता है जिस प्रकार गमन करते हुए मेघ जिस स्थान पर रुक जाते हैं वहीं पर वर्षा होती है।

           ब्यक्तावस्था-रोगोत्पत्ति काल

तदेव ब्यक्ततां यातं रुपमित्यभिधियते।
स्थान संश्रय मे जो अव्यक्त अवस्था मे रोग था यहां वह व्यक्त अवस्था में स्पष्ट हो जाता है।

                   भेदावस्था=
यहां अब रोग व्यक्त अवस्था में दिखने लगता है दोष वृद्धि की यह अंतिम अवस्था है। इसी तरह के और भी विस्तृत काय चिकित्सा और नाड़ी परीक्षण से जुड़े हुए जानकारियों को प्राप्त करने के लिए ऊपर दिए गए link में Click करके Nadi Pariksha Book Pdf Download करें और आयुर्वेद का आनंद लें।

 

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