Indian Famous Nadi Vaidya was asked about Dhatu Pariksha | how Dhatu Pariksha should be done, and how each Dhatu works in the body. In this context, we are writing those things told by the famous Nadi Vaidya on this page. Please carefully memorize the knowledge of the Dhatu in the Ayurvedic pulse Diagnosis method.
On being asked about the Dhatu pariksha, the famous Nadi Vaidya first started explaining to us about Agni, in the context of how Agni resides in the body, he referenced this verse written in Ashtanga Hridayam.
Let us try to understand this whole episode in the Hindi language. If you want to learn Ayurveda then you can definitely contact me.
वामपार्श्वाश्रिते नाभे: किश्चित्सूर्यस्य मंडलम् |
तन्मध्ये मण्डलं सौम्यं तन्मध्ये अग्निर्व्यवस्थितः
जरायूमात्रप्रच्छन्नः काचकोशस्थदीपवत् ।
तदधिष्ठानमन्नस्य ग्रहणात् ग्रहणी मता ॥
अ. ह. शा. ३/४९-५०
इंसान के शरीर में नाभि मंडल के वामपार्श्व मे (यहां ग्रहणी स्थान है) सूर्य और चंद्र मंडल है उसके बीच में अग्नि को प्रकृति ने ऐसे सुरक्षित रखा है जैसे लालटेन के अंदर सुरक्षित जोत रहता है।
It is said here that in the left part of the navel circle in the human body, where the duodenum resides, the Sun and Moon circles reside in the same place. Nature has kept the fire in the middle of it in such a way that there is a safe holding inside a lantern.
रसस्तु हृदयं याति समानमरुतेरितः ।
इस सूत्र के आधार पर ग्रहणी से संग्रहित हुए अन्नरस को समान वायु ह्रदय में पहुंचाता है हृदय में जाकर वहीं से संपूर्ण शरीर में रस और रक्त का संचार होता है।
These two ayurvedic sutras are the most favorite words of the Indian famous Nadi Vaidya |
'रसासृङ्मांसमेदोऽस्थिमज्जशुक्राणि धातवः ।।। (अ.हृ.सू. 1:13)
'त एते शरीरधारणाद्धातव इत्युच्यन्ते' । (सु.सू. 14:20)
'रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदस्ततोऽस्थि च ।
अस्थ्नो मज्जा ततः शुक्रं शुक्राद्गर्भः प्रसादज:' ।। (च.चि. 15:16)
रस धातु (जल)(उपधातु -स्तन्य/आर्तव मल-कफ)
स (रस) हृदयात् चतुर्विंशतिधमनीरनुप्रविश्योर्ध्वगा दश दशाघोगामिन्य श्रतस्त्रश्च तिर्यग्गाः कृत्स्नं शरीरमहरहस्तर्पयति वर्द्धयति धारयति यापयति चादृष्टहेतुकेन कर्मणा' ।
वह रस हृदय से चौबीस धमनियों (दस ऊपर जाने वाली, दस नीचे जाने वाली एवं चार तिर्यक् जाने वाली धमनियों) में प्रविष्ट होकर सम्पूर्ण शरीर को निरन्तर पोषक सामग्री पहुँचाता है शरीर की वृद्धि करता है, धारण करता है और क्षतिपूर्ति करता है। सभी कार्यों में पूर्व जन्म का अदृष्ट कारण होता है।
K.
मोटा त्वचा,चमक रहीत चेहरा,वार-बार सर्दी और छींक आ जाना,एलर्जी,खांसी,गुरुता,श्वैत्य,शीतता,अंगों में शिथिलता,अतिनिद्रा,अग्निमांद्य,हृदयोत्क्लेद
P.
पायरेक्सिया (बुखार),गर्मी लगना, मुहासे दाने ,एक्जिमा,प्रसेक
अग्निमांद्य(पित्त के द्रवगुण बढ़ने से)
स्फेनॉइड साइनसाइटिस-(नाक के अंदर तितली जैसा एक झिल्ली होता है इसमें सूजन उत्पन्न होता है) यदि अनुपचारित छोड़ दिया जाता है, तो स्फेनोइड साइनसिसिस गंभीर जटिलताएं पैदा कर सकता है, जैसे कि न्यूरोलॉजिकल लक्षण, मस्तिष्क में फोड़े और
मेनिन्जाइटिस {मस्तिष्कावरण सोथ}--दिमाग और रीढ़ की हड्डी की झिल्ली की सूजन जो आमतौर पर संक्रमण के कारण होती है.
दिमाग और रीढ़ की हड्डी की झिल्ली की सूजन आमतौर पर एक विषाणुजनित संक्रमण द्वारा होती है, लेकिन यह बैक्टीरिया या फफ़ूंदी से भी हो सकती है.
V.
स्किन में सूखापन ,शरीर की सरकुलेशन में समस्या ,त्वचा में दरारे ,पानी की कमी (डिहाइड्रेशन ),त्वचा का काला पड़ जाना,रद्दपीड़ा, कंपन,शून्यता,तृष्णा,असहिष्णुता,स्रम,शोष, ग्लानि
रक्त धातु - (अग्नि+जल) उपधातु (कंडरा {tendons} शिरा {Veins}) मल (पित्त)
“रसस्तु हृदयं याति समानमरुतेरितः ।
रञ्जितपाचितस्तत्र पित्तेनायाति रक्तताम्' ।। (शार्ङ्गधर, पू. 6:13)
ग्रहणी से समान वायु रस उठाकर हृदय तक लेकर आता है फिर वहां रंजन करके पित्त का निर्माण करता है।
सभी ओर धातुओं के लिए अग्नि का निर्माण भी यहीं पर होता है।
रक्तधातु के कार्य
'रक्तं वर्णप्रसादं मांसपुष्टिं जीवयति च' । (सु.सू. 15:5)
'तेषां (धातूनां) क्षयवृद्धी शोणितनिमित्ते' । (सु.सू. 14:21)
'प्रीणनं जीवनम्' । (अ.हृ.सू. 14:4)
'
रक्तधातु शरीर का पोषण करती है, मांसधातु की पुष्टि करती है और ऊतकों (धातुओं) को आक्सीजन पहुँचाकर जीवन देती है। धातुओं की क्षय एवं वृद्धि रक्त के अधीन है। इसी कारण वात, पित्त, कफ एवं रक्त शरीर की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय में कारण होते हैं।
देहस्य रुधिरं मूलं रुधिरेणैव धार्यते ।
तस्माद् यत्नेन संरक्ष्यं रक्तं जीव इति स्थितिः' ।। (सु.सू. 14:44)
रक्तप्रकोपक कारण
'विदाहीन्यत्रपानानि स्निग्धोष्णानि द्रवाणि च ।
रक्तवाहीनि दुष्यन्ति भजतां चातपानलौ ।। (च.वि. 5:14)
दाह उत्पन्न करने वाले, स्निग्ध, उष्ण एवं द्रव युक्त अन्नपान का सेवन करने से तथा धूप और वायु का अधिक सेवन करने से रक्तवाही स्रोतस दुष्ट हो जाते हैं।
K.
High cholesterol, high BP, blood sugar, thyroid, Voting travel, triglyceride,
P.
रक्त वर्ण का त्वचा,नेत्र,मूत्र का होना, विसर्प -Erysipelas,[ यह एक त्वचा का संक्रामक रोग है जिसमे त्वचा पर संक्रमण होकर लाल चकते हो जाते है | इनमे भंयकर पीड़ा होती है |
रोगी व्यक्ति को तीव्र बुखार आता है, शरीर में दर्द एवं सिरदर्द आदि की समस्या भी रहती है |
प्लीहा,{Enlarged spleen स्प्लेनोमेगाली} विद्रधि {Abscess}, कुष्ठ {Leprosy},वातरक्त {gout},रक्तपित्त { हेमोरेजिक क्वागुलेशन डिसऑर्डर },कामला, मंदाग्नि,
मोह,{महाभारत के समय में अर्जुन को यह रोग हो गया था फिर कृष्णा स्वयं इसका चिकित्सक वनें }
अधिक रक्त का निकालना, मसूड़ों में दर्द होना,खुनी बवासीर
V.
Low blood pressure, anemia, anxiety, uric acid,gout, त्वचा मे रूखापन , शिराओं में शिथिलता, खट्टी और ठंडी चीजों की कामना,
मांस धातु - (पृथ्वी) उपधातु-वसा-षड्त्वचा (मल-खमल)
'मांसं शरीरपुष्टिं मेदसश्च (पुष्टिं करोति)' । (सु.सू. 15:5)
मांस धातु शरीर में पुष्टि और मेद का पोषण करता है।
मांस धातु विकृति का कारण
‘अभिष्यन्दीनि भोज्यानि स्थूलानि च गुरूणि च ।
मांसवाहीनि दुष्यन्ति भुक्त्वा च स्वपतां (जमिन मे) दिवा' ।। (च.वि. 5:15)
अधिमासार्बुदं कीलं गलशालूकशुण्डिके ।
पूतिमांसालजीगण्डगण्डमालोपजिह्विका ।। च.सू. 28:13-14)
मांसधातु के दूषित होने से मांसज रोग उत्पन्न होते हैं। अधिमांस, अर्बुद, अर्श, अधिजिह्वा, उपजिह्वा, उपकुश (दन्तरोग), गलशालूक, गलशुण्डिका,मांस सङ्घात, ओष्ठप्रकोप, गलगण्ड, गण्डमाला, पूतिमांस आदि मांसज रोग हैं।
K
फाइब्रोएडीनोमा (स्तन ट्यूमर, जो कैंसर नहीं होता और ज़्यादातर युवा महिलाओं में होता है. प्रजनन हॉर्मोन की वजह से फ़ाइब्रोएडिनोमा हो सकता है.
,ब्रेस्ट रसौली,सिस्ट,ट्यूमर,कैंसर,- नितंब,ओष्ठ,उरु प्रदेश,वाहु,जंघा अधिक मोटा होना, गलगंड, गंडमाला,अर्बुद, ग्रंथि, तालु रोग,उदरवृद्धि, अधिमांस
P.
सुजन युक्त आमबात,खूनी बवासीर,गले में जलन और दर्द, जलन युक्त खांसी
V.
मांस पेशियों में ऐठन, थकान, मरोड़, कमजोरी
संधियों में वेदना,
मेद धातु= (पृथ्वी+जल) उपधातु स्नायु (मल-स्वेद)
मेदोधातु के कार्य “
मेदः स्नेहस्वेदौ दृढत्वं पुष्टिमस्थ्नां च' । (सु.सू. 15:6)
सभी अंग प्रत्यंग को स्नेहन करना और उन्हें दृढ़ करना और स्वेद को उत्पन्न करना तथा अस्थि धातु का पोषण करना।
'शरीराणि चातिस्थूलानि भवन्ति अव्याधिसहानि' । (च.सू. 28:7)
‘सर्पिस्तैलं वसा मज्जा स्नेहो दिष्टश्चतुर्विध:' । (च.सू. 1:86)
'मेदोवहानां स्रोतसां वृक्कौ मूलं वपावहनं च' । (च.वि. 5:8)
'अव्यायामाद्दिवास्वप्नान्मेद्यानां चातिभक्षणात् ।
मेदोवाहीनि दुष्यन्ति वारुण्याश्चातिसेवनात्' ।। (च.वि. 5:21)
मांसधातु से मेद की उत्पत्ति होती है। डल्हण के अनुसार मांस के प्रसादांश पर अथवा रसधातु के मेद समानांश पर मेदोऽग्नि की क्रिया से किट्ट एवं प्रसाद का निर्माण होता है । किट्ट भाग से मल स्वेद की उत्पत्ति होती है तथा प्रसाद भाग से मेदोधातु एवं स्नायु उपधातु की उत्पत्ति होती है। धात्वग्नि (मेदोऽग्नि) की क्रिया मेदोवह स्रोतस् में होती है जिसके मूल वृक्क और वपावहन हैं। ये स्रोतस् व्यायाम न करने से, दिन में सोने से, मेद एवं वसायुक्त अन्नपान के अधिक सेवन से और अधिक मदिरा के सेवन से दूषित होकर मेदोज रोग एवं स्थौल्यता उत्पन्न करते हैं।
मांस अपनी ऊष्मा से परिपक्व होकर तेज और आप्य गुण की स्निग्धता में वृद्धि होने से मेदोधातु के रूप में उत्पन्न होता है।
K.
Multiple lipoma, fibrosist breast,fibrosist,पित्त की पथरी ,वसायुक्त अल्सर ,गुर्दे की पथरी, कास, स्वास,दुर्गंधता,श्रम, प्रमेह के पूर्व रूप की उत्पत्ति, शरीर मे गीलापन महसूस होना, कटी प्रदेश में थुलथुली पन का बढ़ जाना
P.
किडनी मैं समस्या होना, लीवर में वसा की कमी, अमलीय पदार्थ की अधिकता से शरीर में फोड़े फुंसी, हाइपरटेंशन
V.
संधि से कट कट की आवाज आना, शरीर में रुक्षता, घी और मांस खाने की इच्छा, नेत्रों में ग्लानी, हमेशा शरीर में थकावट की प्रतीति होना, उदर का पतला हो जाना, कटी प्रदेश में शून्यता का प्रतीति होना, शरीर कमजोर हो जाना,प्लीहा वृद्धि - प्लीहाभिवृद्धिरुदरे मेदःक्षये वृद्धवातेनोदरशून्यतया च प्लीहा स्थानाद् भ्रष्टोवर्धते इति चक्रः। (डल्हण)
मेदोवृद्धि के लक्षण
'मेदः (अतिवृद्धं) स्निग्धाङ्गतामुदरपार्श्ववृद्धिं कासश्वासादीन् दौर्गन्ध्यश्च' । (सु.सू. 15:14)
मेद क्षय के लक्षण।
‘मेदःक्षये प्लीहाभिवृद्धिः सन्धिशून्यता रौक्ष्यं मेदुरमांसप्रार्थना च' ।।(सु.सू. 15:9)
सन्धीनां स्फुटनं ग्लानिरक्ष्णोरायास एव च ।
लक्षणं मेदसि क्षीणे तनुत्वं चोदरस्य च' ।। (च.सू. 17:66)
अस्थि धातु (वायु+पृथ्वी) ( उपधातु -×)(मल-केश,लोम,नख, दाड़ी मुछे)(कैल्शियम फास्फोरस एवं खनिज से बना है)
अस्थियों के कार्य
'अस्थीनि देहधारणं मज्ज्ञः पुष्टिं च' । (सु.सू. 15:5)
K
हड्डियों में ट्यूमर, अधिदन्त,अध्यस्थि,केश, शरीर के बाल एवं दाढ़ी मूछों की वृद्धि होना।
जोड़ों में जकडाहट, हड्डी में टीवी,ओस्टियोमलेसिया (Osteomalacia) यानि हड्डी का नरम होना। अगर हड्डी मुलायम होगी तो उसमें जल्दी फ्रैक्चर या क्रेक आ सकता है।
ओस्टियोमलेसिया का मुख्य लक्षण भी यही है। इस समस्या के होने पर फ्रैक्चर बार-बार आने लगता है। यह समस्या विटामिन डी की कमी के कारण होती है।
P.
Periostitis-(पेरिऑस्टाइटिस) दांत में फंगल इन्फेक्शन,संक्रमण और सूजन सहित खून निकलना, हड्डीयों के ऊपरी झिल्लीयों में सूजन होना।
V.
जोड़ों में दर्द, ओस्टियोपोरोसिस, जॉइंट में (सूजन+चूभन+दर्द) अस्थि संधि शोथ, बाल और नाखून का टूट जाना,बाल का न बढना, संधियों मे सिथिलता,
'व्यायामादतिसंक्षोभादस्थ्नामतिविघट्टनात् ।
अस्थिवाहीनि दुष्यन्ति वातलानां च सेवनात्' ।। (च.वि. 5:17)
अतिव्यायाम, अत्यन्त मानसिक क्षोभ, अस्थियों के संघर्ष या रगड़ से, वातवर्धक आहार के अधिक सेवन से अस्थिवह स्रोतसों में विकृति आकर अस्थिदोषज रोग उत्पन्न होते हैं।
मेढ्र-penis मे और,वृषण मे वेदना, मैथुन में शक्ति का ह्रास, शुक्र का देर से निकलना जब शुक्र निकले तो थोड़ा-थोड़ा रक्त मिश्रित, दुर्वलता, मूख का शुख जाना, पांडु का गात्रसाद, थकावट नपुंसकता।
मज्जा (मल-त्वक,स्नेह,नेत्रमल)
मज्जाधातु के कार्य
'बलशुक्ररस श्लेष्ममेदोमज्जविवर्धनः ।
मज्जा विशेषतोऽस्थ्नां च बलकृत् स्नेहने हितः' ।। (च.सू. 13:17)
'मज्जा स्नेहं बलं शुक्रपुष्टिं पूरणमस्थ्नां च करोति' । (सु.सू. 15:6)
मज्जा स्निग्ध एवं मृदु होती है। इसी से मज्जा शरीर को बल प्रदान करती है।
K
चाइल्ड हाइड्रोसेफलस-( बीमारी में मस्तिष्क की कैविटीज में तरल पदार्थ भर जाता है। अतिरिक्त तरल पदार्थ वेंट्रिकल्स के आकार को बढ़ाता है और मस्तिष्क पर दबाव डालता है।
मस्तिष्कमेरु द्रव ( Cerebrospinal fluid) सामान्य रूप से वेंट्रिकल्स से बहता है और मस्तिष्क और स्पाइनल कॉलम की ओर जाता है। द्रव जब अधिक प्रेशर के साथ बहता है तो ये ब्रेन के टिशू को डैमेज करता है)
मस्तिष्क में सफेद पदार्थ ट्यूमर जैसा बनता है।
न्यूरोफिब्रोमैटोसिस
न्यूरोफिब्रोमैटोसिस को आनुवांशिक विकार के रूप में परिभाषित किया जाता है जो तंत्रिका ऊतक पर ट्यूमर के गठन की ओर जाता है।
तंत्रिका, रीढ़ की हड्डी और यहां तक कि मस्तिष्क के भीतर भी तंत्रिका तंत्र के भीतर किसी भी स्थान पर ट्यूमर का विकास हो सकता है।
-नेत्रों में भारीपन मालूम होना,
हाइपरसोम्निया-अतिनिंद्रा,सुस्त रहना, मंदाग्नि, इसका लक्षण है।
P.
मल्टीपल स्क्लेरोसिस-ऑटो इम्यून सिस्टम का विकार है। जो सैंटर नर्भस् सिस्टम को प्रभावित करता है, मस्तिष्क और शरीर के संबंधों को प्रभावित करता है।
साइटिका, कटी स्नायु शूल,
शिजोफ्रेनिया (मानस उन्माद-कभी-कभी मैं क्या कर रहा हूं इसका भान नहीं होता) (मानसविकार- सोचने समझने को प्रभावित करता है।
V.
न्यूरोलॉजिकल प्रॉब्लम, शरीर में झुनझुनी आना, हाथ पैर में सुन्नता, स्पर्श मे दर्द, धारण शक्ति में कमी, उग्र विचार, पार्किंसन, मिर्गी , शुक्र धातु का अल्प होना, संधियों में भेदनवतव पीड़ा होना, अस्थियों के कट कर गिरने की प्रतीति होना, भ्रम एवं आंखों के सामने अंधेरा छा जाना,
'रुक्पर्वणां भ्रमो मूर्च्छा दर्शनं तमसस्तथा ।
अरुषां स्थूलमूलानां पर्वजानां च दर्शनम् ।
आँख के आगे अँधेरा छा जाना, मूर्च्छा, भ्रम, अस्थियों के पर्वों पर वेदना, आँख आना इत्यादि एवं पर्वों पर स्थूल मूल की फुंसियों का दिखाई देना मज्जज रोगों में होता है ।
शुक्र/आर्तव
'सप्तमी शुक्रधरा (नाम), या सर्वप्राणिनां सर्वशरीरव्यापिनी ।
यथा पयसि सर्पिस्तु गूढश्चेक्षौ रसो यथा ।
शरीरेषु तथा शुक्रं नृणां विद्यात् भिषग्वरः' ।। (सु.शा. 4:20-21)
'रस इक्षौ यथा दघ्नि सर्पिस्तैलं तिले यथा ।
सर्वत्रानुगतं देहे शुक्रं संस्पर्शने तथा' ।। (च.चि. 2:4:46)
शुक्र-- जिस प्रकार से गन्ने के प्रत्येक रस मे गुड़ व्याप्त है जैसे दूध में घी भी व्याप्त है उसी प्रकार प्रजाउत्पादक हेतु वृषणस्थ माना जाने वाला शुक्र संपूर्ण शरीर में व्याप्त है।
शुक्रधातु के कार्य
'शुक्रात् गर्भः प्रसादज' । (च.चि. 15:16)
शुक्रायत्तं बलं पुंसाम्' । (योगरत्नाकर)
'शुक्रं धैर्यं च्यवनं प्रीतिं देहबलं हर्षं बीजार्थं च' ।
K.
प्रॉस्टेटिक कैलकुली
अंडकोष में पानी भर जाना
एंडोमेट्रियोसिस (रक्त पित्त)
ट्यूब ब्लॉकेज
रसौली
PCOD, फाइब्रॉयड, वाइट डिस्चार्ज {स्वेत प्रदर)
P.
अंडाशय में जलन
अंडकोष वृद्धि (hydrocele)
प्रोस्टेट प्रॉब्लम
आर्तव एंडोमेट्रियोसिस
संवेदनशील निप्पल
टेंडर ब्रेस्ट
फाइब्रॉयड ट्यूमर
शीघ्रपतन
वार्थोलिन के ग्रंथियों में सूजन {वैजाइनल सिस्ट}
(बार्थोलिन ग्रंथियां योनि को नम रखने के लिए तरल पदार्थों के स्राव की अनुमति देती हैं। इन ग्रंथियों की नलिकाओं में रुकावट के कारण सूजन या सिस्ट बन जाते हैं। जब पुटी संक्रमित हो जाती है, तो इसके परिणामस्वरूप बार्थोलिन फोड़ा बन सकता है। इसे वैजाइनल सिस्ट के नाम से भी जाना जाता है।)
गर्भाशय ग्रीवा सोथ,योनि सोथ,योनी फंगल इंफेक्शन,योनि भ्रंश
V.
रज और धातुओं का सूख जाना
रजोनिवृत्ति
शीघ्रपतन
Hysteria
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