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विकारो धातुवैषम्यम् | व्याधि किसे कहते हैं | धातु में विकार कैसे उत्पन्न होता है। आयुर्वेदिक पाठशाला |

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Dhatu Bikar विकारो धातुवैषम्यम्:  दोषों की विषमावस्था का नाम रोग है, दोषों के विषम या विकृत होने पर ही Dhatu Bikar रोग उत्पन्न होता है ।Dhatu Bikar  रोग का उत्पन्न होने के लिए दोषों का विषम होना जरूरी है। दोषों का विषम हुए बगैर शारीरिक व्याधि नहीं हो सकता।
विकारो धातुवैषम्यं साम्यं प्रकृतिरुच्यते ।
सुख संज्ञकमारोग्यं विकारो दुःखमेव च ।। (चरक सू. ९/४) धातुवैषम्य की अवस्था जिससे शरीर या मन को कष्ट हो रोग कहलाती है। धातुसाम्य की अवस्था आरोग्य की अवस्था है। आरोग्य को सुख कहते हैं, विकार को दुःख कहते हैं।

Dhatu Bikar व्याधि किसे कहते हैं।

तत् दुःख संयोगा व्याधय उच्यन्ते' । सुश्रुत सू. १/२१ ।
 पुरुष का दुःख के साथ संयोग ही रोग(व्याधि) है ।
'रोगस्तु दोष वैषम्यम्' । अष्टांग हृदय सू. १ /२० ।
दोषों की विषमावस्था का नाम रोग है, दोषों के विषम या विकृत होने पर ही रोग उत्पन्न होता है । रोग का उत्पन्न होने के लिए दोषों का विषम होना जरूरी है। दोषों का विषम हुए बगैर शारीरिक व्याधि नहीं हो सकता।


धातुस्थूणात्म वैषम्यं तत् दुःखं व्याधिसंज्ञकम्।
धातुस्थूणात्म साम्यं तु तत्सुखं प्रकृतिश्च सा' | काश्यप सं २७/६ |

बात, पित्त कफ से किसी भी प्रकार के वैषम्य के आजाने से रोग उत्पन्न होता है, अतः इनकी विषमता ही रोग है, ओर इनकी साम्यावस्था ही आरोग्य है।

लिंगसमुदायात्मको व्याधि:' (गंगाधर) 
लक्षण समुच्चय का नाम ही व्याधि है क्योंकि इसी लक्षण समुच्चय से व्यधि का ज्ञान या विनिश्चय किया जाता है ।

दोष दूष्य-सम्मूर्च्छना विशेषो ज्वरादि रूपो व्याधिः' (विजयरक्षित)

दोष और दृष्य की सम्पूर्छना ही रोग है। महर्षि चरक ने भी रोगोत्पति में दोष-दूष्य-सम्मूर्च्छना को स्वीकार किया है। विजयरक्षित (मधुकोष टीका) की यह परिभाषा सर्वाधिक वैज्ञानिक एवं स्वीकृत है।

जबतक धातु साम्य रहता है यानी शरीर में कफ पित्त वात और रस रक्त आदि धातु दोषों और विकारों से रहित होकर शरीर में कार्य करते हैं तब तक तभी तक शरीर स्वस्थ रहता है। जब आहार बिहार से दूसीत दोष{कफ,पित्त,वात} धातु{रस रक्त आदि सात धातु } वैषम्य यानी धातु में विषमता उत्पन्न होती है तब रोग पैदा होते हैं। यहाँ धातु शब्द से दोष-धातु और मल, तीनों का ज्ञान होना चाहिए मल भी शाम्य अवस्था में धातु ही होता है। दोष-धातु-मलों के प्राकृत परिमाण एवं प्राकृत गुण-कर्मों का वर्णन शास्त्रों में मिलता है और उन्हें स्वस्थ व्यक्तियों के शरीर में देखा जाता है। दोषादिकों की द्रव्यतः गुणतः या कर्मतः वृद्धि या क्षय, वैषम्य कहलाता है।

           

Dhatu Bikar धातु वैषम्य का हेतु।

यानी मान लीजिए किसी का अगर शरीर में वायु बढ़ा हुआ है तो दोष वृद्धि के क्रम में वायु का रुक्ष आदि गुणों के साथ गमन और प्राप्ति वाली क्रियाएं भी बढ़ता हुआ जाता है।
जिन रोगों का निदान-रुप परक समस्त वर्णन मिलता है उन्हें आविष्कृतम रोग कहते हैं। उनमें मुख्यतः दोषवृद्धि ही वैषम्य की अवस्था के रूप में मिलती है। 

दोष सम्प्राप्ति
सामान्यतः सम्प्राप्ति के बिना रोग नहीं होता है और सम्प्राप्ति की प्रारम्भिक अवस्था-चयावस्था-वृद्धिगत दोषों से ही सम्भव है। अतएव शोधन एवं शमन चिकित्सा से इन बढ़े हुए दोषों को कम किया जाता है। परन्तु नानात्मज विकारों में, जहां मात्र लक्षण उत्पन्न होते हैं, पूर्ण सम्प्राप्ति नहीं बनती और ये मृदु लक्षण शीघ्र स्वतः शान्त भी हो जाते हैं। 
व्यावहारिक दृष्टि से क्षीण दोषों के लक्षण या तो एकदेशीय मिलते हैं या आवरणजन्य । सामान्यतः रोगों में रस-रक्तादि धातुओं का क्षय Dhatu Bikar मिलता है, परन्तु अपवाद स्वरूप स्थौल्य में, रक्तपित्त में तथा प्रमेह में तत्तत् दृष्य की वृद्धि मिलती है। 'सामान्यं वृद्धिकारणम्, ह्रासहेतुविशेषश्च' के सिद्धान्तों से क्षय या वृद्धि की चिकित्सा की जाती है।

शारीरिक और मानसिक दोषों को दोष की श्रेणी में तथा धातुओं और मलों को दूष्य की श्रेणी में लिया जाता हैं। दोष-दृष्य स्रोतस इनके प्राकृत रहने पर कोई रोग नहीं हो सकता है। रोगावस्था में इन तीनों में विकृति आ जाती है।
 वृद्धाः ह्रासयितव्याः, क्षीणाः वर्धयितव्याः इन नियमों का चिकित्सा में पालन किया जाता है। रस-रक्तादि सात धातुओं के अतिरिक्त उदक, ओज तथा लसीका को भी जलोदर एवं प्रमेह की अवस्थाओं में दूष्यों में गिना जाता है। उपधातु भी दृष्य हैं। धातु वैषम्य का ज्ञान लक्षणों के द्वारा किया जाता है। सामान्यतः दोषादिकों के प्राकृत कर्मों की वृद्धि या क्षय क्रमशः वृद्धि या क्षय द्योतक होते हैं। 

सम्प्राप्ति और चिकित्सा का सम्बन्ध

 चिकित्सा रोग का नाश करने के लिए की जाती है। रोग किसी विशिष्ट स्रोतस या स्थान में दोषदूष्य सम्मूर्छना जनित हुआ करता है। रोगोत्पत्ति की प्रक्रिया का नाम सम्प्राप्ति है। सम्प्राप्ति विघटन की चिकित्सा होती है। प्रत्येक रोग की सम्प्राप्ति में दोष, दृष्य, स्रोतस एवं अग्निमान्य का कर्तृत्व रहता है। और इसीलिए दोष शोधन या शमन, दूष्यों का पोषण, स्रोतस-अवयव अधिष्ठान की वृद्धि तथा अग्नि को प्राकृत अवस्था में लाने के लिए दीपन पाचन उपक्रम किये जाते हैं । चिकित्सा को दोषप्रत्यनीक, व्याधिप्रत्यनीक एवं उभय प्रत्यनीक इस प्रकार भी तीन भागों में विभक्त करते हैं। जो व्याधि प्रत्यनीक है वह अधिकांश में दोषप्रत्यनीक भी रहता है परन्तु जो दोष प्रत्यनीक है वह अल्पांश में ही व्याधिप्रत्यनीक होता है।
 यत् व्याधिप्रत्यनीकं तद वश्यं दोष प्रत्यनीकम्,
 यत् दोष प्रत्यनीकं तन्नावश्यं व्याधिप्रत्यनीकम् । 

केवल दोषों या दृष्यों को ठीक करने की अपेक्षा दोनों को ठीक करना अधिक लाभ दायक एवं आशुलाभकारी होने से उभय प्रत्यनीक चिकित्सा अधिक उन्मुक्त है। यदि दोष दूष्य सम्मूर्च्छना प्रकृति सम समवेत प्रकार की हो तो दोष प्रत्यनीक चिकित्सा करना सरल है परन्तु यदि विकृति विषम समवेत सम्मूर्च्छना हो तो व्याधिप्रत्यनीक चिकित्सा करना अधिक सरल रहता है।व्याधिप्रत्यनीक चिकित्सा का पर्याप्त वर्णन मिलता है। रस, भस्म, आसव आदि का भी व्याधि प्रत्यनीकत्व ही अधिक वर्णित है। कुछ औषधियाँ सीधा ही स्रोतस पर प्रभाव डालकर लाभ पहुंचाती हैं, यथा- कनकासव का श्वास (प्राणवह स्रोतस ) पर प्रभाव, अर्जुन के छाल का ह्रदय रोग रसवह स्रोतोंमूल पर प्रभाव डालता है।शरपुंखा का यकृत और प्लीहा वृद्धि (रक्तवह स्रोतोमूल पर प्रभाव, अहिफैन का अतिसार (पुरीषवह स्रोतस) पर प्रभाव, पुनर्नवा का मूत्रवह स्रोतस पर प्रभाव आदि देखा जाता है।

दोष क्षय प्रकोप

कई बार एक दोष के क्षीण हो जाने पर दूसरे दोष के कर्म अपेक्षाकृत बढ़े हुए लगते हैं। आवरण में आवरक(जिसने आवरण पैदा किया है) दोष के लक्षण बड़े हुए मिलते हैं, आवृत (जिस दोष को किसी दूसरे दोष ने ढक दिया हो)दोष के क्षीण लक्षण मिलते हैं। चिकित्सा का उद्देश्य धातु साम्य करना बताया गया है।

धातु वैषम्य का चिकित्सा।

वृद्धि अवस्था का धातु बिकृतावस्था दोषों के कारण होता है। प्रथमत: दोष ही विकृत होते हैं धातु नहीं। कोई धातु अगर विकृत हो रखा है तो  यह निश्चित कर लेना चाहिए की विकृत अवस्था का दोष कौंन सा है और कीन आहार बिहारादी हेतुओं से बड़ा हुआ है और वृद्धि अवस्था का जो दोष है उसका कौन सा अंश कर्मत,गुणत,द्रव्यत:वडा हुवा है बस उसी की आधार पर विपरीत चिकित्सा करनी है।

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